।। श्रीहरिः ।।



 
आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक कृष्ण द्वितीया, वि.सं.–२०७०, रविवार
अनिर्वचनीय प्रेम
 
 

जो मनुष्य संसारसे दुःखी होकर ऐसा सोचता है कि कोई तो अपना होता, जो मुझे अपनी शरणमें लेकर, अपने गले लगाकर मेरे दुःख, सन्ताप, पाप, अभाव, भय, नीरसता आदिको हर लेता, उसको भगवान्‌ अपनी भक्ति प्रदान करते हैं । परन्तु जो मनुष्य केवल संसारके दुःखोंसे मुक्त होना चाहता है, पराधीनतासे छूटकर स्वाधीन होना चाहता है, उसको भगवान्‌ मुक्ति प्रदान करते हैं । मुक्त होनेपर वह ‘स्व’ में स्थित हो जाता है‒‘समदुःखसुखः स्वस्थ:’ (गीता १४।२४)‘स्व’ में स्थित होनेपर ‘स्व’-पना अर्थात् व्यक्तित्वका सूक्ष्म अहंकार रह जाता है, जिसके कारण उसको ‘अखण्ड आनन्दका अनुभव होता है । जीव परमात्माका अंश है । अंशका अंशीकी तरफ स्वत: आकर्षण होता है । अत: ‘स्व में स्थित अर्थात् मुक्त होनेके बाद जब उसको मुक्तिमें भी सन्तोष नहीं होता, तब ‘स्व का ‘स्वकीया’ (परमात्मा) की तरफ स्वत: आकर्षण होता है । कारण कि मुक्त होनेपर जीवके दुःखोंका अन्त और जिज्ञासाकी पूर्ति तो हो जाती है, पर प्रेम-पिपासा शान्त नहीं होती । तात्पर्य है कि प्रेमकी जागृतिके बिना स्वयंकी भूखका अत्यन्त अभाव नहीं होता । स्वकीयकी तरफ आकर्षण होनेसे अर्थात् प्रेम जाग्रत् होनेसे अखण्ड आनन्द ‘अनन्त आनन्दमें बदल जाता है और व्यक्तित्वका सर्वथा नाश हो जाता है ।
 
मुक्त होनेसे पहले जीव और भगवान्‌में जो भेद होता है, वह बन्धनमें डालनेवाला होता है, पर मुक्त होनेके बाद जीव (प्रेमी) और भगवान्‌ (प्रेमास्पद)-में जो प्रेमके लिये स्वीकृत भेद होता है, वह अनन्त आनन्द देनेवाला होता है‒
द्वैतं मोहाय बोधात्प्राग्जाते बोधे मनीषया ।
भक्त्यर्थं कल्पितं  द्वैतमद्वैतादपि  सुन्दरम् ॥
                                                                                               (बोधसार, भक्ति ४२)
‘बोधसे पहलेका द्वैत मोहमें डाल सकता है, पर बोध हो जानेपर भक्तिके कल्पित अर्थात् स्वीकृत द्वैत अद्वैतसे भी अधिक सुन्दर होता है ।’
 
कारण कि बोधसे पहलेका भेद अहम्‌के कारण होता है और बोधके बादका (प्रेमकी वृद्धिके लिये होनेवाला) भेद अहम्‌का नाश होनेपर होता है ।
 
जैसे संसारमें किसी वस्तुका ज्ञान होनेपर ज्ञान बढ़ता नहीं, प्रत्युत अज्ञान मिट जाता है, ऐसे ही ज्ञानमार्गमें स्वरूपका ज्ञान होनेपर अज्ञानको मिटाकर ज्ञान खुद भी शान्त हो जाता है और स्व-स्वरूप स्वत: ज्यों-का-त्यों रह जाता है । इसलिये ज्ञानमार्गमें अखण्ड, शान्त, एकरस आनन्द मिलता है । परन्तु जैसे संसारमें किसी वस्तुमें आसक्ति होनेपर फिर आसक्ति बढ़ती ही रहती है‒‘जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई’, ऐसे ही भक्तिमार्गमें भगवान्‌में प्रेम होनेपर फिर वह प्रेम बढ़ता ही रहता है । इसलिये भक्तिमार्गमें अनन्त, प्रतिक्षण वर्धमान आनन्द मिलता है ।
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे
 
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