।। श्रीहरिः ।।



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आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
अनिर्वचनीय प्रेम
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
जब वे सतीजीके साथ कैलास जा रहे थे, तब भी मार्गमें भगवान्‌ श्रीरामका दर्शन करके उनकी विचित्र दशा हो गयी‒
 
                   सतीं सो दसा संभु कै देखी ।              उर उपजा संदेहु बिसेषी ॥
                   संकरु जगतबंद्य जगदीसा ।        सुर नर मुनि सब नावत सीसा ॥
                   तिन्ह नृपसुतहि कीन्ह परनामा ।       कहि सच्चिदानंद परधामा ॥
                   भए मगन छबि सासु बिलोकी । अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी ॥
 
इस प्रकार सनकादि, जनक, भगवान्‌ शंकर आदि सभीका स्वाभाविक ही भगवान्‌की तरफ खिंचाव होता है । इस खिंचावका नाम ही प्रेम है ।
 
श्रीमद्भागवतमें आया है‒
                 आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे ।
                 कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरि: ॥
                                                               (१।७।१०)
‘ज्ञानके द्वारा जिनकी चिज्जडग्रन्थि कट गयी है, ऐसे आत्माराम मुनिगण भी भगवान्‌की निष्काम भक्ति किया करते हैं; क्योंकि भगवान्‌के गुण ही ऐसे हैं कि वे प्राणियोंको अपनी ओर खींच लेते हैं ।’
 
कोई कमी भी न हो और प्रेमकी भूख भी हो‒यह प्रेमकी अनिर्वचनीयता है । सत्संगमें लगे हुए साधकोंका यह अनुभव भी है कि प्रतिदिन सत्संग सुनते हुए, भगवान्‌की लीलाएँ सुनते हुए, भजन-कीर्तन करते और सुनते हुए भी न तो उनसे तृप्ति होती है और न उनको छोड़नेका मन ही करता है । उनमें प्रतिदिन नया-नया रस मिलता है, जिसमें भूतकालका रस फीका दीखता है और वर्तमानका रस विलक्षण दीखता है*इस प्रकार प्रेममें पूर्णता भी है और अभाव भी है‒यह प्रेमकी अनिर्वचनीयता है ।
 
ज्ञानमें तो स्वरूपमें स्थिति होती है, जिससे ज्ञानीको सन्तोष हो जाता है‒‘आत्मन्येव च सन्तुष्ट:’ (गीता ३।१७), परन्तु प्रेममें न स्थिति होती है और न सन्तोष होता है, प्रत्युत नित्य-निरन्तर वृद्धि होती रहती है । वास्तवमें प्रेमका निर्वचन (वर्णन) किया ही नहीं जा सकता । अगर उसका निर्वचन कर दें तो फिर वह अनिर्वचनीय कैसे रहेगा ?
डूबै सो बोलै नहीं,     बोलै सो अनजान ।
गहरो प्रेम-समुद्र कोउ डूबै चतुर सुजान ॥
 
भगवान्‌के ही समग्ररूपका एक अंश अथवा ऐश्वर्य ब्रह्म है‒‘ते ब्रह्म तद्विदु:’ (गीता ७।२९), ‘ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्’ (गीता १४।२७) । समग्ररूप (समग्रम्) विशेषण है और भगवान्‌ (माम्) विशेष्य हैं‒‘असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु’ (गीता ७।१) । इसी तरह भगवान्‌ने अधियज्ञ(अन्तर्यामी) को भी अपना स्वरूप बताया है‒ ‘अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे’ (गीता ८।४) । अत: ब्रह्म विशेषण है और अन्तर्यामी भगवान्‌ विशेष्य हैं । इसलिये ज्ञानीका सम्बन्ध विशेषणके साथ होता है और भक्तका सम्बन्ध विशेष्यके साथ होता है । दूसरे शब्दोंमें, ज्ञानीका सम्बन्ध ऐश्वर्यके साथ होता है और भक्तका सम्बन्ध ऐश्वर्यवान्‌के साथ होता है ।
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे
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*राम चरित जे सुनत अघाहीं । रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं ॥
   जीवनमुक्त महामुनि जेऊ ।       हरि गुन सुनहि निरंतर तेऊ ॥
                                                                     (मानस, उत्तर ५३।१-२)