।। श्रीहरिः ।।



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आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक कृष्ण पंचमी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
अनिर्वचनीय प्रेम


  (गत ब्लॉगसे आगेका)
ज्ञानीकी तो ब्रह्मसे ‘तात्त्विक एकताहोती है पर भक्तकी भगवान्‌के साथ ‘आत्मीय एकताहोती है । इसलिये भगवान्‌ कहते हैं‒‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’ (गीता ७।१८) ‘ज्ञानी तो मेरी आत्मा ही है‒ऐसा मेरा मत है । यहाँ ‘ज्ञानीशब्द तत्त्वज्ञानीके लिये नहीं आया है, प्रत्युत ‘सब कुछ भगवान्‌ ही हैं‒इसका अनुभव करनेवाले ज्ञानी अर्थात् शरणागत भक्तके लिये आया है‒‘वासुदेव: सर्वमिति ज्ञानवान् मां प्रपद्यते’ (गीता ७।१९) । ज्ञानी (तत्त्वज्ञानी)-की ‘तात्त्विक एकतामें तो जीव और ब्रह्ममें अभेद हो जाता है तथा एक तत्त्वके सिवाय कुछ नहीं रहता । परन्तु भक्तकी ‘आत्मीय एकतामें जीव और भगवान्‌में अभिन्नता हो जाती है । अभिन्नतामें भक्त और भगवान्‌ एक होते हुए भी प्रेमके लिये दो हो जाते हैं । यद्यपि भगवान्‌ सर्वथा पूर्ण हैं, उनमें किंचिन्मात्र भी अभाव नहीं है, फिर भी वे प्रेमके भूखे हैं‒‘एकाकी न रमते’ (बृहदारण्यक१।४।३) । इसलिये भगवान्‌ प्रेम-लीलाके लिये श्रीजी और कृष्णरूपसे दो हो जाते हैं‒
                         येयं राधा यश्च कृष्णो रसा-
                                      ब्धिर्देहश्चैकः क्रीडनार्थं द्विधाभूत् ।
                                                            (राधातापनीयोपनिषद्)
 
वास्तवमें श्रीजी कृष्णसे अलग नहीं होतीं, प्रत्युत कृष्ण ही प्रेमकी वृद्धिके लिये श्रीजीको अलग करते हैं । तात्पर्य है कि प्रेमकी प्राप्ति होनेपर भक्त भगवान्‌से अलग नहीं होता, प्रत्युत भगवान्‌ ही प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमके लिये भक्तको अलग करते हैं । इसलिये प्रेम प्राप्त होनेपर भक्त और भगवान्‌‒दोनोंमे कोई छोटा-बड़ा नहीं होता । दोनों ही एक-दूसरेके भक्त और दोनों ही एक-दूसरेके इष्ट होते हैं । तत्त्वज्ञानसे पहलेका भेद (द्वैत) तो अज्ञानसे होता है, पर तत्त्वज्ञानके बादका (प्रेमका भेद भगवान्‌की इच्छासे होता है ।)
 
अभिन्नता दो होते हुए भी हो सकती है; जैसे बालककी माँसे, सेवककी स्वामीसे, पत्नीकी पतिसे अथवा मित्रकी मित्रसे अभिन्नता होती है । इसलिये भक्तिमें आरम्भसे ही भक्तकी भगवान्‌से अभिन्नता हो जाती है‒‘साह ही को गोतु गोतु होत है गुलाम को’ (कवितावली, उत्तर१०७) । कारण कि भक्त अपना अलग अस्तित्व नहीं मानता । उसमें यह भाव रहता है कि भगवान्‌ ही हैं, मैं हूँ ही नहीं ।
 
प्रेममें माधुर्य है । अत: ‘प्रभु मेरे हैंऐसे अपनापन होनेसे भक्त भगवान्‌का ऐश्वर्य (प्रभाव) भूल जाता है । जैसे, महारानीका बालक उसको ‘माँ मेरी हैऐसे मानता है तो उसका प्रभाव भूल जाता है कि यह महारानी है । एक बाबाजीने गोपियोंसे कहा कि कृष्ण बड़े ऐश्वर्यशाली हैं, उनके पास ऐश्वर्यका बड़ा खजाना है, तो गोपियों बोलीं कि महाराज ! उस खजानेकी चाबी तो हमारे पास है । कन्हैयाके पास क्या है ? उसके पास तो कुछ भी नहीं है ! तात्पर्य है कि माधुर्यमें ऐश्वर्यकी विस्मृति हो जाती है ।
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे