।। श्रीहरिः ।।



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आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक कृष्ण षष्ठी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
अनिर्वचनीय प्रेम
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
संसारमें तो ऐश्वर्यका ही ज्यादा आदर है, पर भगवान्‌में माधुर्यका ज्यादा आदर है । जिस समय भगवान्‌में माधुर्य-शक्ति प्रकट रहती है, उस समय ऐश्वर्यशक्ति दूर भाग जाती है, पासमें नहीं आती । वास्तवमें भक्त भगवान्‌के ऐश्वर्यको देखता ही नहीं । कारण कि भगवान्‌को भगवान्‌ समझकर प्रेम करना भगवान्‌के साथ प्रेम नहीं है, प्रत्युत भगवत्ता (ऐश्वर्य) के साथ प्रेम है । जैसे, धनको देखकर धनवान्‌के साथ स्नेह करना वास्तवमें धनवत्ताके साथ स्नेह करना है ।
 
प्रेमकी जागृतिमें भगवान्‌की कृपा ही खास कारण है । प्रेमकी वृद्धिके लिये विरह और मिलन भी भगवान्‌की कृपासे ही प्राप्त होते हैं । आदरपूर्वक भगवल्लीलाका श्रवण, वर्णन, चिन्तन तथा भगवन्नामका कीर्तिन आदि साधनोंके बलसे प्रेमकी प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत समयका सदुपयोग होता है, जिसको वैष्णवाचार्योंने ‘कालक्षेप कहा है । भगवान्‌की कृपा प्राप्त होती है उनकी शरण होनेपर । शरण होनेमें संसारके आश्रयका त्याग मुख्य है ।
 
संसारसे अलग होनेपर संसारका ज्ञान होता है और भगवान्‌से अभिन्न होनेपर भगवान्‌का ज्ञान होता है । कारण कि जीव संसारसे अलग है और भगवान्‌से अभिन्न है‒यह वास्तविक, यथार्थ बात है । परन्तु शरीर-संसारसे एकता माननेसे संसारका ज्ञान नहीं होता और संसारका ज्ञान न होनेसे ही संसारकी तरफ खिंचाव होता है । इसी तरह भगवान्‌से भिन्नता माननेसे भगवान्‌का ज्ञान नहीं होता है और भगवान्‌का ज्ञान न होनेसे ही भगवान्‌की तरफ खिंचाव नहीं होता । संसार अपना नहीं है‒इस तरह संसारका ज्ञान होनेसे संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । भगवान्‌ अपने हैं‒इस तरह भगवान्‌का ज्ञान होनेसे भगवान्‌के साथ अभिन्नता होकर प्रेम हो जाता है ।
 
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे
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यदि जानना ही हो तो अविनाशीको जानो, विनाशीको जाननेसे क्या लाभ ?
जानेवालेको जानेवाला समझना और रहनेवालेको रहनेवाला समझना‒यही यथार्थ समझ है ।
जिसको पीछे सुलटा न कर सकें, ऐसा उलटा काम कभी नहीं करना चाहिये ।
प्रत्येक परिस्थिति भगवान्‌की लीला (खेल) है, उसे देख-देखकर मस्त होते रहो !
द्वैत और अद्वैत केवल मान्यता है । तत्त्वमें न द्वैत है, न अद्वैत ।
यदि हमने कोई अपराध नहीं किया है, हमारा कृत्य ठीक है तो फिर भय नहीं होना चाहिये । अगर भय होता है तो कुछ-न-कुछ, कहीं-न-कहीं हमारी गलती है अथवा अपनी निर्दोषतापर हमारा दृढ़ विश्वास नहीं है ।
प्रत्येक कार्यके आरम्भमें यह विचार करना चाहिये कि हम यह कार्य क्यों कर रहे हैं ?
‒ ‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे