।। श्रीहरिः ।।



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आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक कृष्ण अष्टमी, वि.सं.–२०७०, रविवार
नाम-जपकी महिमा
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषके मुखसे निकले जो शब्द (उपदेश) होते हैं, उनको कोई आदरपूर्वक सुनता है तो उसके आचरण, भाव सुधर जाते हैं और अज्ञान मिटकर बोध हो जाता है । परन्तु जिसकी वाणीमें असत्य, कटुता, वृथा बकवाद, निन्दा, परचर्चा आदि दोष होते हैं, उसके शब्दोंका दूसरोंपर असर नहीं होता; क्योंकि उसके आचरणोंके कारण शब्दकी शक्ति कुण्ठित हो जाती है । ऐसे ही स्वयं वक्तामें भी भ्रम, प्रमाद, लिप्सा और करणापाटव‒ ये चार दोष होते हैं । वक्ता जिस विषयका विवेचन करता है, उसको वह ठीक तरहसे नहीं जानता अर्थात् कुछ जानता है और कुछ नहीं जानता‒यह ‘भ्रम’ है । वह उपदेश देते हुए सावधानी नहीं रखता, बेपरवाह होकर कहता है और श्रोता किस दर्जेका है, कहाँतक समझ सकता है आदि बातोंको उपेक्षाके कारण नहीं जानता‒यह ‘प्रमाद’ है । किसी तरहसे मेरी पूजा हो, आदर हो, श्रोताओंसे रुपये- पैसे मिल जायँ, मेरा स्वार्थ सिद्ध हो जाय, सुननेवाले किसी तरहसे मेरे चक्करमें आ जायँ, मेरे अनुकूल बन जायँ आदिकी इच्छा रखता है‒यह ‘लिप्सा’ है । कहनेकी शैलीमें कुशलता नहीं है, वक्ता श्रोताकी भाषाको नहीं जानता, श्रोता किस तरह बातको समझ सकता है‒वह युक्ति उसको नहीं आती‒यह ‘करणापाटव’ है । ये चार दोष वक्तामें रहनेसे वक्ताके शब्दोंसे श्रोताको ज्ञान नहीं होता । इन दोषोंसे रहित शब्द श्रोताको ज्ञान करा देते हैं । श्रोता भी श्रद्धा, विश्वास, जिज्ञासा, तत्परता, संयतेन्द्रियता आदिसे युक्त हो और उसका परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य हो तो उसको वक्ताके शब्दोंसे ज्ञान हो जाता है । तात्पर्य है कि वक्ताके अयोग्यता होनेपर भी श्रोतापर उसकी वाणीका असर नहीं पड़ता और श्रोताकी अयोग्यता होनेपर भी उसपर वक्ताकी वाणीका असर नहीं पड़ता । दोनोंकी योग्यता होनेपर ही वक्ताके शब्दका श्रोतापर असर पड़ता है । परन्तु भगवान्‌के नाममें इतनी विलक्षण शक्ति है कि कोई भी मनुष्य किसी भी भावसे नाम ले, उसका मंगल ही होता है‒
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ॥
                                                                     (मानस १।२८।१)
भगवान्‌का नाम अवहेलना, संकेत, परिहास आदि किसी भी प्रकारसे लिया जाय, वह पापोंका नाश करता ही है‒
साङ्केत्यं पारिहास्य वा स्तोभं हेलनमेव वा ।
वैकुण्ठनामग्रहणमशेषाघहरं             विदुः ॥
                                                                     (श्रीमद्भा़ ६।२।१४)
भगवान्‌ने अपने नामके विषयमें स्वयं कहा है कि जो जीव श्रद्धासे अथवा अवहेलनासे भी मेरा नाम लेते हैं, उनका नाम सदा मेरे हृदयमें रहता है‒
श्रद्धया हेलया नाम रटन्ति मम जन्तवः ।
तेषां नाम सदा पार्थ   वर्तते  हृदये मम ॥
 
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मूर्ति-पूजा और नाम-जपकी महिमा’ पुस्तकसे