।। श्रीहरिः ।।

 
आजकी शुभ तिथि–
आश्विन अमावस्या, वि.सं.–२०७०, शनिवार
मातामह-श्राद्ध, शारदीय नवरात्रारम्भ,
सर्वोच्च पदकी प्राप्तिका साधन
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
अच्छे-अच्छे विचारकों एवं धनिकोंसे सुना है कि धन पैदा करनेमें उतनी कठिनाई नहीं है, जितनी उसकी ठीक जहाँ आवश्यकता हो वहाँ खर्च करनेमें हैउसका सदुपयोग करनेमें है । जैसे समयरूपी अमूल्य धन तो सबको मिला ही हुआ है, पर उसके सदुपयोगमें कठिनाई है । सर्वसाधारण लोगोंमें अधिक धन कमानेकी ही लगन रहती है, उसके उपयुक्त उपयोगकी नहीं । औरोंकी तो बात ही क्या, सत्संग करनेवाले भाई-बहनोंकी भी अधिक सत्संग कैसे मिले, बढ़िया बातें सुननेको कैसे मिलेंयह लगन तो रहती है, पर सुनी हुई बातोंको हम काममें कैसे लायें, हमारा जीवन तदनुकूल कैसे बनेइस ओर दृष्टि कम रहती है । पर वास्तवमें सुनी हुई बातोंके अनुसार आचरण होइस बातकी लगन अधिक रहनी चाहिये । सत्संग और सत्-शास्त्रोंके अनुसार जीवन नहीं बन रहा हैइसका दुःख होना चाहिये ।
 
कई लोगोंके मनमें यह भाव रहता है कि हमारे पास धन अधिक हो तो उसके द्वारा हम पुण्य करें, अत: वे धनके संग्रहमें लगे रहते हैं । परंतु नीति कहती है कि धर्मके लिये भी धन-संग्रहकी चेष्टा करना तो दूर, इच्छा करना भी उत्तम नहीं है । ध्यान रहेयज्ञ-दान आदि करनेके लिये भी धनकी इच्छा करना भूल है । इसके विपरीत, जो कुछ भी अपने पास है उसका सदुपयोग कैसे किया जाययह विचार कल्याण करनेवाला है । नीतिमें कहा है
धर्मार्थं यस्य वित्तेहा वरं तस्य निरीहता ।
प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरम् ॥
                                                                                      (पंचतन्त्र)
धर्मके लिये धन कमाना वैसा ही है, जैसे कोई यह सोचकर अपने कपड़ोंको नालीके कीचड़से सान ले कि घरमें पानीकी कल चलती ही है, उससे कीचड़ धो लेंगे । ऐसी मूर्खता करनेवाला यह नहीं सोचता कि उसके कपड़े तो पहलेसे ही धुले हुए हैं, उन्हें कीचड़में सानकर पुनः धोनेका परिश्रम क्यों किया जाय ! इसी प्रकार शुभ कामके लिये भी धनकी चिन्ता क्यों करें ? हाँ, धन-विद्या-बल-बुद्धि आदि जो प्राप्त हैं, उनका सदुपयोग अवश्य करना चाहिये । धन आने-जानेवाला है, आप सदा रहनेवाले आत्मा हैं; अत: धन आपको क्या सुख देगा ? इसलिये उसकी इच्छा करना कीचड़से अपने कपड़ोंको सानना नहीं तो क्या है ! यहाँ एक बात और विचारणीय हैकीचड़ और शरीर एक ही जातिके हैंप्रकृतिके विकार हैं, जब कि आप चिन्मय हैं । धन जड एवं नाशवान् है, इसके द्वारा चिन्मयताकी प्राप्ति नहीं होती, अपितु जडताके त्यागसे चिन्मयताकी प्राप्ति होती है । धनके द्वारा हम भगवान्‌को खरीद लेंगेयह सोचना बिलकुल भूल है ।
 
     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘सर्वोच्च पदकी प्राप्तिका साधन’ पुस्तकसे