।। श्रीहरिः ।।

 
आजकी शुभ तिथि–
आश्विन शुक्ल द्वितीया, वि.सं.–२०७०, रविवार
सर्वोच्च पदकी प्राप्तिका साधन
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
धन-सम्पत्तिकी बात तो दूर रही, भगवान् तो कहते हैंनाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।’ (गीता ११/५३) यज्ञोंके द्वारा भगवान्‌को नहीं देखा जा सकता । वेदाध्ययनके द्वारा हम भगवान्‌को प्राप्त कर लेंगे, यह नहीं होनेका; इतना धन दान कर देंगे तो भगवान् मिल जायेंगेयह भी सम्भव नहीं है; इतनी तपस्या करनेसे भगवान्‌की प्राप्ति हो जायगीयह भी दुराशामात्र है । भगवान् कहते हैं–‘इनके द्वारा मेरी प्राप्ति नहीं होती ।हाँ, इन जड पदार्थोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होते ही चिन्मय तत्त्व स्वत: बचा रहेगा ।
 
इसपर कोई प्रश्र कर सकता है–‘आप कहते हैं कि यज्ञ-दान-तप आदिसे भगवत्प्राप्ति नहीं होती ।किन्तु श्रीभगवान् कहते हैं
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय     तत्कुरुष्व मदर्पणम्
                                                                                  (गीता ९/२७)
हे अर्जुन ! तू जो कुछ कर्म करता है, जो कुछ खाता है, जो हवन करता है, जो कुछ दान देता है, जो कुछ स्वधर्माचरणरूप तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर ।
 
जो कुछ भी करो, मेरे अर्पण कर दो; उससे तुम शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे’ (गीता ९/२८) शुभ-अशुभ फलसे छूट जाओगे । इसका क्या समाधान ह? इसका उत्तर यह है कि यहाँ सब कुछ भगवान्‌को अर्पण करनेका अभिप्राय हैयज्ञ-दान-तप आदि जो कुछ भी तुम करते हो, उसे अपना मत मानो । इससे निष्कर्ष यही निकला कि इनके द्वारा भगवान्‌की प्राप्ति नहीं होती, ममत्वके त्यागसे ही होती है
त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् । (गीता १२/१२)
त्यागेनैके अमृतत्वमानशु: । (कैवल्य-उप३)
 
श्रुति और स्मृति-दोनों ही कह रही हैं कि त्यागसे भगवान् मिलते हैं । अपने स्वार्थ और अभिमानको छोड़कर दूसरोंके हितकी चेष्टा करना ही त्याग है ।
 
जैसे बीजोंको बोनेसे खेती होती है तथा उन्हें भक्षण करनेसे उनकी रेती हो जाती है, उसी प्रकार भोगोंको दूसरोंकी सेवामें लगानेसे परमार्थकी खेती होती है अर्थात् जीवकी उन्नति होती है और उन्हें स्वयं भोगनेसे रेती यानी पतन होता है ।
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘सर्वोच्च पदकी प्राप्तिका साधन’ पुस्तकसे