।। श्रीहरिः ।।

 
आजकी शुभ तिथि–
आश्विन शुक्ल तृतीया, वि.सं.–२०७०, सोमवार
सर्वोच्च पदकी प्राप्तिका साधन
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
यहाँ शंका हो सकती है–‘क्या हम धन आदिका उपयोग भी न करें ?’ इसका उत्तर यह है–‘आप पवित्र वस्तुओंका उपयोग कर सकते हैं ।यज्ञशिष्टयज्ञसे बची हुई सामग्री पवित्र होती है । केवल अपने लिये भोजन पकानेवालोंके सम्बन्धमें भगवान् कहते हैं–‘वे पापी पापको ही खाते हैं’–
भुतेञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ।
                                                                                  (गीता ३/१३)
श्रुति कहती हैं
केवलाघी भवति केवलादी ।
 
अत: सबको देनेका भाव मनमें होनेपर सबको देनेकी चेष्टा भी होगी तथा स्वयं भी निर्वाहके लिये अन्न-वस्त्र आदिका उपयोग कर सकेंगे । केवल अन्न-वस्त्रकी ही बात नहीं, उत्तम बातें भी आपको यदि ज्ञात हैं तो उनका उपयोग भी सबके हितके लिये किया जाय । यही भाव मनमें रहना चाहिये–‘सबका कल्याण कैसे हो ?’ सबके हितकी रति भगवान्‌को प्राप्त करा देती है । भगवान् और भगवान्‌के भक्त बिना कारण हित करनेवाले हैंहेतु रहित जग जुग उपकारी । इसी प्रकार यदि किसीके हृदयमें सबके हितका भाव हो गया तो उसका कल्याण निश्चित है; कारण, ऐसे लोगोंके लिये भगवान् कहते हैंमम साधर्म्यमागताः । (गीता १४/) वे मेरे सहधर्मी बन जाते हैं ।
 
तुच्छ वस्तुओंके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे हम तुच्छ हो गये हैं; सर्वसुहद् परमात्माके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे हम ऊँचे हो जायेंगे । भगवान्‌के लगाया हुआ भोग शुद्ध, पवित्र हो जाता है । उनके यदि बतासा-जैसी साधारण वस्तुका भी भोग लगाया जाय तो उसे लेनेके लिये बड़े-बड़े धनी-मानी भी हाथ पसार देंगे । क्यों ? क्या वे मीठेके भूखे हैं ? क्या उन्हें बतासे मिलते नहीं ? फिर बात क्या है ? भगवान्‌के अर्पण करनेसे वस्तु परम पवित्र हो जाती है, उसका महत्त्व बढ़ जाता है । इसी प्रकार जो सब कुछ भगवान्‌को अर्पण कर देता है अर्थात् सबपरसे माना हुआ अपनापन उठा लेता है, उसका सब-का-सब पवित्र हो जाता है । कैसी सरल और सुगम बात है । केवल भाव बदल देना है । भावके परिवर्तन करते ही बड़ा अन्तर हो जाता है । व्यापारी लोग जानते हैं कि खरीदी हुई वस्तु जिससे खरीदी है उसके पास ही क्यों न पड़ी रहे, उसका भाव बढ़ जानेसे हम धनी हो जाते हैं और भाव गिर जानेसे हम दीवालिये हो जाते हैं । बाजारके भावको बदलना तो हमारे हाथकी बात नहीं है, पर अपने मनके भावको बदलना तो हमारे हाथमें है । अत: मनके भावको बदलकरउसे ऊँचा करके हम मालामालकृतार्थ हो सकते हैं; इसके लिये ही हमें यह मानव-शरीर मिला है ।
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘सर्वोच्च पदकी प्राप्तिका साधन’ पुस्तकसे