।। श्रीहरिः ।।

 
आजकी शुभ तिथि–
आश्विन शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
सर्वोच्च पदकी प्राप्तिका साधन
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
जैसे तिजोरीका ताला अपनी ओर घुमाते ही बंद हो जाता है और अपने विपरीत दिशामें घुमाते ही खुल जाता है, इसी प्रकार जो परमात्मा सब जगह परिपूर्ण हैं, उनकी सम्पत्ति हमें मिलेइस भावसे हम उसपर ताला लगा लेते हैं । इसके विपरीत, हमारा भाव यह हो जाय कि उनकी सम्पत्ति सबको मिले तो ताला खुल जाता है । सच्चे हृदयसे परमात्माकी ओर चलनेवालोंके विषयमें सुना है कि बिना पढ़े-लिखे लोगोंके हृदयोंमें भी श्रुति-स्मृतियोंकी तात्त्विक बातें स्कुरित हो जाती हैं । ऐसा क्यों होता है ? इसलिये कि वे हमारे लिये ही हैं । भगवान्‌के तो काम वे आतीं नहीं; कारण, ज्ञानसे अज्ञान दूर होता है और भगवान्‌के अज्ञान है ही नहीं, अत: शास्त्रोंकी बातें भगवान्‌के तो काम आतीं नहीं । वह सब-का-सब ज्ञान हमारे लिये ही है । पदार्थोंको चाहनेसे वह ज्ञान प्राप्त नहीं होता । भगवान्‌की ओरसे यह निषेध नहीं है कि पदार्थोंको चाहनेवालेको वे ज्ञान नहीं देंगे, पर पदार्थोंको चाहनेवाला ज्ञानको ले नहीं सकता । पदार्थोंको, भोगोंको पकड़े-पकड़े ही हम ज्ञान चाहेंगे तो वह मिलनेका नहीं ।
 
दो चींटियोंका दृष्टान्त दिया है संतोंने । एक नमकके ढेलेपर रहनेवाली चींटीकी एक मिश्रीके ढेलेपर रहनेवाली चींटीसे मित्रता हो गयी । मित्रताके नाते वह उसे अपने नमकके ढेलेपर ले गयी और कहा–‘खाओ !वह बोली–‘क्या खायें, यह भी कोई मीठा पदार्थ है क्या ?’ नमकके ढेलेपर रहनेवालीने उससे पूछा कि मीठा क्या होता है, इससे भी मीठा कोई पदार्थ है क्या ?’ तब मिश्रीपर रहनेवाली चींटीने कहा–‘यह तो मीठा है ही नहीं । मीठा तो इससे भिन्न ही जातिका होता है ।परीक्षा करानेके लिये मिश्रीपर रहनेवाली चींटी दूसरी चींटीको अपने साथ ले गयी । नमकपर रहनेवाली चींटीने यह सोचकर कि मैं कहीं भूखी न रह जाऊँछोटी-सी नमककी डली अपने मुँहमें पकड़ ली । मिश्रीपर पहुँचकर मिश्री मुँहमें डालनेपर भी उसे मीठी नहीं लगी । मिश्रीपर रहनेवाली चींटीने पूछा–‘मीठा लग रहा है न ?’ वह बोली–‘हाँ-में-हाँ तो कैसे मिला दूँ ? बुरा तो नहीं मानोगी ? मुझे तो कोई अन्तर नहीं प्रतीत होता है, वैसा ही स्वाद आ रहा है ।उस मिश्रीपर रहनेवाली चींटीने विचार किया–‘बात क्या है ? इसे वैसा हीनमकका स्वाद कैसे आ रहा है !उसने मिश्री स्वयं चखकर देखी, मीठी थी । वह सोचने लगी–‘बात क्या है !उसने पूछा–‘आते समय तुमने कुछ मुँहमें रख तो नहीं लिया था ?’ इसपर वह बोली–‘भूखी न रह जाऊँ, इसलिये छोटा-सा नमकका टुकड़ा मुँहमें डाल लिया था ।उसने कहा–‘निकालो उसे ।जब उसने नमककी डली मुँहमेंसे निकाल दी, तब दूसरीने कहा–‘अब चखो इसे ।अबकी बार उसने चखा तो वह चिपट गयी । पूछा–‘कैसा लगता है ?’ तो वह इशारेसे बोली–‘बोलो मत, खाने दो ।
 
इसी प्रकार सत्संगी भाई-बहन सत्संगकी बातें तो सुनते हैं, पर धन, मान-बड़ाई, आदर-सत्कार आदिको पकड़े-पकड़े सुनते हैं । साधन करनेवाला, उसमें रस लेनेवाला उनसे पूछता है–‘क्यों ! कैसा आनन्द है ?’ तब हाँ-में-हाँ तो मिला देते हैं, पर उन्हें रस कैसे आये ? नमककी डली जो मुँहमें पड़ी है । मनमें उद्देश्य तो है धन आदि पदार्थोंके संग्रहका, भोगोंका और मान-पद आदिका । अत: इनका उद्देश्य न रखकर केवल परमात्माकी प्राप्तिका उद्देश्य बनाना चाहिये ।
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘सर्वोच्च पदकी प्राप्तिका साधन’ पुस्तकसे