।। श्रीहरिः ।।

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आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक शुक्ल अष्टमी, वि.सं.–२०७०, रविवार
गोपाष्टमी
करणनिरपेक्ष साधन-शरणागति
 
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒‘मैं पतिकी हूँ’‒यह तो प्रत्यक्ष दिखायी देता है, पर मैं भगवान्‌का हूँ’‒यह प्रत्यक्ष दिखायी नहीं देता, फिर इसको कैसे मानें ?
 
उत्तर‒पहले जमानेमें विवाहसे पहले लड़का-लड़की एक-दूसरेको नहीं देखते थे । माता-पिता ही दोनोंको भलीभाँति देखकर उनकी सगाई कर देते थे । एक बार सगाई होनेपर फिर उस सम्बन्धमें कोई सन्देह नहीं रहता था । जब बिना देखे सगाई हो सकती है, तो फिर बिना देखे भगवान्‌को अपना क्यों नहीं मान सकते ? अवश्य मान सकते हैं । जो कहते हैं कि बिना देखे भगवान्‌को अपना कैसे मानें, उनकी अभी सगाई ही नहीं हुई है, विवाह होना तो दूर रहा !
 
दूसरी बात, किसीको अपना माननेके लिये उसे देखनेकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत अपना स्वीकार करनेकी जरूरत है । हम प्रतिदिन अनेक मनुष्योंको देखते हैं तो क्या उन सबसे अपनेपनका सम्बन्ध हो जाता है ? उन सबसे मित्रता हो जाती है ? प्रेम हो जाता है ? जिसको अपना स्वीकार करते हैं, उसीसे प्रेम होता है ।
 
तीसरी बात, हमारे पास देखनेके लिये जो नेत्र हैं, वे जड़ संसारका अंग होनेसे संसारको ही देखते हैं, संसारसे अतीत चिन्मय भगवान्‌को नहीं देख सकते । हाँ, अगर भगवान्‌ चाहें तो वे हमारे नेत्रोंका विषय हो सकते हैं अर्थात् हमें दर्शन दे सकते हैं; क्योंकि वे सर्वसमर्थ हैं । इसलिये हमें प्रभुको देखे बिना ही भगवान्‌के, शास्त्रोंके, भक्तोंके वचनोंपर विश्वास करके मैं प्रभुका हूँ और प्रभु मेरे हैं’‒ऐसा स्वीकार कर लेना चाहिये । यही सर्वश्रेष्ठ करणनिरपेक्ष साधन’ है ।
 
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
 
‒‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे