।। श्रीहरिः ।।

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आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक शुक्ल दशमी, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
एकादशी-व्रत कल है
मुक्ति सहज है
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
किसीसे सम्बन्ध जोड़नेमें और सम्बन्ध तोड़नेमें सब स्वतन्त्र हैं । वास्तवमें हमारा सम्बन्ध केवल परमात्मासे है । भूलसे हमने प्रकृतिसे सम्बन्ध जोड़ लिया । अब उस माने हुए सम्बन्धको तोड़ लेना है‒बस, यही काम है । परमात्मासे हमारा सम्बन्ध स्वाभाविक और सच्चा है, और प्रकृतिसे हमारा सम्बन्ध अस्वाभाविक और बनावटी है । अस्वाभाविक और बनावटी सम्बन्धको तोड़ देना है । वह टूटेगा प्रकृतिसे अपना सम्बन्ध न माननेसे । पहले अपनेको बालक मानते थे, पर क्या अब अपनेको बालक मानते हैं ? तो जैसे बालकपनके साथ आपने मान्यता की थी, वैसी ही अब जवानीके साथ मान्यता कर ली कि मैं जवान हूँ’ । ऐसे ही मैं रोगी हूँ’, ‘मैं नीरोग हूँ’ आदि मान्यताएँ कर लीं । वृद्धावस्थाके साथ मान्यता कर ली और फिर मृत्युके साथ मान्यता कर ली । विचार करें कि मान्यता करनेके सिवा आपने और कौन-सी चेष्टा की ? जैसे आपने पहले अपनेको बालक माना, वैसे ही अब अपनेको बालक न मानकर जवान मान लिया । तो केवल मान्यता-ही-मान्यता है । न कोई चेष्टा है, न कोई विचार । इतनी सुगम बात संसारमें है ही नहीं । केवल संयोगजन्य सुखकी इच्छाके ही कारण कठिनाई हो रही है । वह संयोगजन्य सुख भी ऐसा है कि जिससे परिणाममें दुःख-ही-दुःख मिलता है । सुखकी लालसासे महान् अनर्थ होगा ही । इसे टालनेकी ताकत ब्रह्माजीमें भी नहीं है । रुपये मिल जायँ तो सुखी हो जाऊँगा, पदार्थ मिल जायँ तो सुखी हो जाऊँगा‒यहीं सारी बात अटकी हुई है । आजतक इन पदार्थोंसे किसीको पूर्ण सुख नहीं मिला । मिल सकता ही नहीं । बालकपनसे ही सुख लेनेके पीछे पड़े हैं । अबतक कितना सुख ले लिया, बताओ ? धन भी इकट्ठा किया है, विषय भोग भी भोगे हैं, थोडी-बहुत मान-बड़ाई भी मिली है‒इस प्रकार संसारका थोड़ा नमूना आप-हम सभीने देखा ही है । पर बताओ कि क्या इनसे अभीतक तृप्ति हुई है ? क्या इनसे पूर्ण सुख मिला है ? यदि नहीं मिला तो फिर इनके पीछे क्यों पड़े हो ? क्या कोई वहम बाकी रह गया है ? बाकी यही रहा है कि बढ़िया दुःख मिलेगा ! सिवाय दुःखके और कुछ नहीं मिलेगा । यह कोई मामूली, खेल-तमाशेकी बात नहीं है । संयोगजन्य सुख लेनेसे परिणाममें दुःख होता ही है । सच्चा सुख, आनन्द बाहरसे नहीं आता अपितु भीतरसे निकलता है । सच्चे सुखका अन्त नहीं आता । एक बार मिलनेपर फिर कभी बिछुड़ता नहीं । पर जबतक बाहरका सुख लोगे, उसकी इच्छा करोगे, उसे महत्त्व दोगे, तबतक भीतरका सुख मिलेगा नहीं । संयोगजन्य सुखकी इच्छाको दूर करनेका उपाय है दूसरोंको सुख कैसे मिले’ ऐसी जोरदार इच्छा । भीतरमें व्याकुलता उत्पन्न हो जाय कि दूसरोंका दुःख कैसे मिटे ? मैं करनेपर जोर नहीं देता हूँ अपितु भाव बनानेपर जोर देता हूँ । भावसे चट काम होता है । भाव हो, तो करना स्वत: हो जायगा । सम्पूर्ण प्राणियोंके सुखका भाव होनेपर अपने सुखकी लालसा सुगमतापूर्वक मिट जायगी और अपने सुखकी लालसा मिटनेपर प्राप्त वस्तु-(मुक्ति, प्रेम आदि-) का अनुभव सुगमतापूर्वक हो जायगा ।
 
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
 
‒ ‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे