।। श्रीहरिः ।।

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आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक शुक्ल एकादशी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
प्रबोधिनी एकादशी-व्रत (सबका)
संयोगमें वियोगका दर्शन
 
 
संसारमें संयोग और वियोग‒दो चीजें हैं । जैसे आप और हम मिले तो यह संयोग हुआ तथा आप और हम अलग हुए तो यह वियोग हुआ । तो ये जो संयोग और वियोग हैं, इन दोनोंमें वियोग प्रबल है । तात्पर्य यह कि संयोग होगा कि नहीं होगा‒इसका तो पता नहीं, पर वियोग जरूर होगा‒यह पक्की बात है । जिसका वियोग हो जाय, उसका फिर संयोग होगा‒यह निश्रित नहीं, पर जिसका संयोग हुआ है उसका वियोग होगा‒यह निश्चित है । इससे यह सिद्ध होता है कि जितने भी संयोग हैं, सब वियोगमें जा रहे हैं । प्रत्येक संयोगका वियोग हो रहा है । यह सबके अनुभवकी बात है । अब इसमें बुद्धिमानीकी बात यह है कि जिसका वियोग अवश्यम्भावी है, उसके वियोगको हम अभी, वर्तमानमें ही मान लें । फिर मुक्ति, तत्त्वज्ञान, बोध अपने-आप हो जायगा । कितनी सरल बात है !
 
शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण, ‘मैं’ पन‒सबका एक दिन वियोग हो जायगा । आप इनके वियोगका अनुभव वर्तमानमें ही कर लें । प्रत्येक संयोग वियोगमें बदल जाता है इसलिये वास्तवमें वियोग ही है, संयोग है ही नहीं । संयोगरूपी लकड़ी निरन्तर वियोगरूपी आगमें जल रही है ।
 
जीवका वास्तविक सम्बन्ध परमात्माके साथ है; जिसे योग’ कहते हैं । इसका कभी वियोग नहीं होता । वस्तुत: परमात्मासे जीवका वियोग कभी हुआ ही नहीं । जीव केवल परमात्मासे विमुख हो जाता है । मनुष्यका संसारसे संयोग होता है, योग नहीं होता । संयोगका तो वियोग हो जाता है, पर योग सदा रहता है । जैसे यहाँ हम दो महीनेके लिये आये हैं । अब पंद्रह-बीस दिन गुजर गये, तो क्या अब भी दो महीने हैं ? ये पंद्रह-बीस दिन वियुक्त हो गये, हम इनसे अलग हो गये और अलग हो ही रहे हैं । एक दिन पूरा वियोग हो जायगा । ऐसे मात्र पदार्थ, परिस्थिति, अवस्था आदिका हमसे वियोग हो रहा है । कोई नया संयोग होगा तो वह भी वियोगमें जायगा । इसमें क्या सन्देह है, बताओ ? तो इस वियोगको ही हम महत्त्व दें, इसे ही सच्चा मानें । फिर परमात्मामें स्वत: हमारी स्थिति हो जायगी । कारण कि सचाईसे ही सचाईमें स्थिति होती है । परमात्मामें स्थितिका ही नाम है‒मुक्ति ।
 
     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे
ठीक-बेठीक हमारी दृष्टिमें होता है । भगवान्‌की दृष्टिमें सब ठीक-ही-ठीक होता है, बेठीक होता ही नहीं ।
दूसरे हमारेमें गुण देखते हैं तो यह उनकी सज्जनता और उदारता है, पर उन गुणोंको अपना मान लेना उनकी सज्जनता और उदारताका दुरुपयोग है ।
विद्या प्राप्त करनेका सबसे बढ़िया उपाय है‒गुरुकी आज्ञाका पालन करना, उनकी प्रसन्नता लेना । उनकी प्रसन्नतासे जो विद्या आती है, वह अपने उद्योगसे नहीं आती ।
‒ ‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे