।। श्रीहरिः ।।

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आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
जाग्रत्‌में सुषुप्ति
 

एक बहुत सुगम बात है । उसे विचारपूर्वक गहरी रीतिसे समझ लें तो तत्काल तत्त्वमें स्थित हो जायँ । जैसे राजाका राज्यभरसे सम्बन्ध होता है, वैसे ही परमात्मतत्त्वका मात्र वस्तु, व्यक्ति क्रिया आदिके साथ सम्बन्ध है । राजाका सम्बन्ध तो मान्यतासे है, पर परमात्माका सम्बन्ध वास्तविक है । हम परमात्माको भले ही भूल जायँ, पर उसका सम्बन्ध कभी नहीं छूटता । आप चाहे युग-युगान्तरतक भूले रहें तो भी उसका सम्बन्ध सबसे एक समान है । आपकी स्थिति जाग्रत्, स्वप्न या सुषुप्ति किसी अवस्थामें हो, आप योग्य हों या अयोग्य, विद्वान् हों या अनपढ़, धनी हों या निर्धन, परमात्माका सम्बन्ध सब स्थितियोंमें एक समान है । इसे समझनेके लिये युक्ति बताता हूँ । आप मानते हैं कि बालकपनमें मैं था, अभी मैं हूँ और आगे वृद्धावस्थामें भी मैं रहूँगा । बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था‒तीनोंका भेद होनेसे था’, ‘हूँ’ और रहूँगा’ ये तीन भेद हुए, पर अपने होनेपनमें क्या फर्क पड़ा ? भूत, वर्तमान और भविष्य‒तीनोंमें अपना होनापन (सत्ता) तो एक ही रहा । अत: आप कैसे भी हों, कैसे भी रहें, आपकी सत्ता एक समान अखण्ड रहती है । आपका कभी अभाव नहीं होता । वह सत्ता ही शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिको सत्ता-स्कूर्ति देती है । वह शरीरादिके आश्रित नहीं है । इससे यह सिद्ध हुआ कि आप हरदम है’ में स्थित रहते हैं । जड़ वस्तु, क्रिया आदिका सम्बन्ध न रखकर है’ से सम्बन्ध रखना है । यह जाग्रत्‌में सुषुप्ति है ।
 
वह सत्ता मन, बुद्धि, इन्द्रियों, शरीरकी क्रियाओंमें अनुस्यूत है । वही मन, बुद्धि आदिका प्रकाशक, आधार है । उस सर्व-प्रकाशक, सर्वाधारमें हमें स्थित रहना है । वह सत्ता सदा ज्यों-की-त्यों रहती है । जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, स्थिरता, चंचलता, योग्यता, अयोग्यता, बालकपन, जवानी, वृद्धावस्था, विपत्ति, सम्पत्ति, विद्वत्ता, मूर्खता आदि सभी उस सत्तासे प्रकाश पाते हैं । वस्तुत: उसमें आपकी स्थिति स्वतःसिद्ध है । केवल उसकी ओर लक्ष्य, दृष्टि करनी है । शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिके साथ सम्बन्ध ही मोह है । इस मोहका नाश होनेपर स्मृति जाग्रत् हो जाती है‒‘नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा’ (गीता १८।७३)स्मृतिका अर्थ‒जो बात पहलेसे ही थी, उसकी याद आ गयी । कोई नया ज्ञान होना स्मृति नहीं है । अब चाहे कुछ हो जाय, चाहे कोई व्यथा आ जाय, अपनी सत्तामें क्या फर्क पड़ता है ? केवल अपनी सत्ताकी ओर दृष्टि करनी है, फिर इसी क्षण जीवन्मुक्ति है । इसमें कोई अभ्यास नहीं करना है ।
 
सत्ताकी ओर दृष्टि न करें, तब भी वह वैसी-की-वैसी ही रहती है । पर उस ओर दृष्टि न करनेसे आप अपनी स्थिति क्रियाओं, पदार्थों, अवस्थाओं आदिमें मानते हैं । भोजन करते समय मैं खाता हूँ’, जल पीते समय मैं पीता हूँ’, जाते समय मैं जाता हूँ’ आदि सब स्थितियोंमें हूँ’ समान ही रहता है । यदि मैं’ को हटा दें तो हूँ’ नहीं रहेगा अपितु है’ रहेगा । वह है’ सदा ज्यों-का-त्यों रहता है ।
खोया कहे सो  बावरा   पाया  कहे सो कूर ।
पाया खोया कुछ नहीं ज्यों-का-त्यों भरपूर ॥
 
इस है’ में स्थित होते ही अखण्ड समाधि, जाग्रत्-सुषुप्ति हो जाती है ।
 
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
 
‒ ‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे