।। श्रीहरिः ।।

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आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.–२०७०, शनिवार
श्रीवैकुण्ठ-चतुर्दशी
हमारा स्वरूप सच्चिदानन्द है
 

यह जो आप मानते हैं कि । ‘मैं हूँ’ तो इसमें एक विशेष बात ध्यान देकर सुनें । आप अकेले मैं हूँ’ ऐसा मानते हो तो यह हूँ’ पना एकदेशीय है, और तू है’, ‘यह है’, ‘वह है’ये है’ पना व्यापक है । तो यह है’ ही मैं’ के कारण हूँ’ बना । अगर मैं’ न हो तो केवल है’ ही रहेगा । तो यह मैं’ तब होता है, जब कुछ चाहना होती है । मनुष्य कुछ करना चाहता है, कुछ जानना चाहता है, कुछ पाना चाहता है । तो कुछ-न-कुछ चाहना है, तभी मैं हूँ’ है । अगर कुछ भी चाहना न रहे, तो हैही रहेगा ।
 
आपने अनादिकालसे हूँ’ (जो नहीं’ है) में अपनी स्थिति मान रखी है । हैमें स्थिति होनेपर हैनहीं रहता । इसकी तो ऐसी महिमा हमने पढ़ी है कि एक बार जो हैमें स्थित हो गया, तो फिर उसे जानने, करने, पानेकी किञ्चिन्मात्र भी जरूरत नहीं रहती । वह हैमें स्थित हो गया तो न करना रहा, न जानना रहा, न पाना रहा । कुछ भी नहीं रहा । एक हैही रह गया । वहाँ तो पूर्णता है । जबतक साथमें ‘नहीं’ रहता है, तबतक पूर्णता नहीं होती । पूर्णतामें आंशिकरूपसे भी नहीं’ नहीं रहता । तो एक बार हैमें स्थिति होनेपर फिर कभी उसमें हूँनहीं आता । जो हूँ’ का पुराना संस्कार है, वह मन-बुद्धिमें स्फुरित हो सकता है, पर हैमें हूँ नहीं आता । मन-बुद्धिमें इसलिये आता है कि मन-बुद्धि उसके साथ रहे हैं । इसलिये जैसे कोई पुरानी बात याद आ जाय, ऐसे हूँ आता है । वास्तवमें तो हूँ’ है ही नहीं, फिर आये कहोंसे ? जो याद आ जाय वह वास्तवमें होती नहीं । केवल पुरानी देखी, सुनी, भोगी हुई वस्तुकी यादमात्र आती है, वस्तु तो आती नहीं । ऐसे ही हूँ’ की याद आ जाय, तो वह है नहीं । उस हैमें सबकी स्थिति है ।
 
अब एक खास बात बतायी जाती है । ध्यान देकर सुनें । वह यह कि वास्तवमें हम क्या चाहते हैं‒इसकी तरफ खयाल करें । कई तरहकी चाहनाएँ इकट्ठी करनेके कारण मनुष्य वास्तवमें क्या चाहता है, इसे भूल गया । पर भूलनेपर भी भूलता नहीं । उसे हरदम याद रहता है, परन्तु पूछनेपर ठीक जवाब नहीं दे सकता; क्योंकि उसने इसपर अभी विचार ही नहीं किया । यदि विचार करें तो यह पता लगता है कि मैं सदा रहना चाहता हूँ । कोई भी व्यक्ति ऐसा कभी नहीं चाहता कि मैं मिट जाऊँ । किसी वक्त दुःखमें ऐसा कहता है कि मर जाऊँ तो सुखी हो जाऊँ । वह शरीरको दुःखका कारण मानता है, इसलिये दुःख मिटानेके लिये शरीरको मिटाना चाहता है कि मैं सुखी हो जाऊँ । तो मैं बना रहूँ और सुखी रहूँ‒यह चाहना तो रहती ही है । धन, सम्पत्ति, वैभव, मान, बड़ाई, नीरोगता आदिकी जो चाहना होती है, यह असली हमारी चाहना नहीं है । हमारी चाहना तो सदा रहनेकी है । और सदा रहनेका नाम हैहै । जो नित्य-निरन्तर रहता है, उसे ही हैकहते हैं । उस हैमें स्थित होते ही हमारी नित्य-निरन्तर रहनेकी चाहना पूरी हो जाती है । पर यदि दूसरी चाहना करता है, तो हैसे अलग हो जाता है; क्योंकि जो चीज अभी नहीं है, उसे पानेकी चाहना हुई, तो चाहना नहीं’ की ही हुई । नहीं’ को पकड़नेसे ही चाहना होती है । यदि नहीं ' को न पकड़े, तो हैमें ज्यों-का-त्यों है ।
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे