।। श्रीहरिः ।।

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आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.–२०७०, सोमवार
हमारा स्वरूप सच्चिदानन्द है
 
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒अपने स्वरूप हैमें स्थिति होनेके बाद भी पुराने संस्कार आते हैं क्या ?
 
उत्तर‒पुराने संस्कार हैमें नहीं आते, मन-बुद्धिमें आते हैं । संस्कार तो मन-बुद्धिमें पड़े हुए हैं, पर उनको अपनेमें मान लेते हो । अनादिकालसे ही मन-बुद्धिमें आनेवाले संस्कारोंको अपनेमें मानते चले आये हैं । पर ये अपनेमें आते ही नहीं । कारण कि ये आने-जानेवाले हैं और स्वयं रहनेवाला है । आने-जानेवालेका प्रवेश मन-बुद्धिमें तो हो सकता है, पर हैमें कभी प्रवेश नहीं हो सकता । हैमें नहीं’ का प्रवेश कैसे हो सकता है ? केवल आप नहींको भूलसे अपनेमें मानकर उससे सम्बन्ध जोड़ लेते हैं ।
 
स्वरूपमें आकर्षण-विकर्षण भी बिलकुल नहीं है । ये तो मन-बुद्धिमें हैं । थोड़ा-सा ध्यान दें कि आकर्षण और विकर्षण‒ये दोनों किसी ज्ञानके अन्तर्गत दीखते हैं । तो उस ज्ञानमें ये दोनों कहाँ हैं ? जैसे प्रकाशमें हाथ दीखता है, तो हाथके अन्तर्गत प्रकाश नहीं है, बल्कि प्रकाशके अन्तर्गत हाथ है । ऐसे ही मन-बुद्धिमें होनेवाले आकर्षण-विकर्षण ज्ञानके अन्तर्गत हैं । ज्ञान कहो या हैकहो । उसमें आपकी स्वतःस्वाभाविक स्थिति है ।
 
प्रश्न‒जबतक यह शरीर है, तबतक अन्तःकरणमें ये विकार होते रहेंगे ?
 
उत्तर‒नहीं, बिलकुल नहीं । अन्तःकरणके विकार शरीरके रहनेसे सम्बन्ध नहीं रखते । अन्तःकरणमें विकार रहते हैं‒असत्‌को सत् माननेसे, ‘हैं को नहीं’ माननेसे । असत्‌को सत् माना कि विकार आये । असत्‌को सत् न माननेसे शरीरके रहते हुए भी विकार नहीं आयेंगे । शरीरका वृद्ध होना, कमजोर होना आदि विकार तो अवस्थाके अनुसार स्वत: स्वाभाविक होंगे । पर आकर्षण-विकर्षण आदि जो विकार हैं, ये नहीं होंगे । ये तो असत्‌में सत्-बुद्धि होनेसे ही होते हैं । खूब विचार करो । असत् असत् ही है और सत् सत् ही है । आप हैमें स्वत: स्थित हो । स्थित न होनेपर ही स्थित होना पड़ता है । जिसमें पहलेसे ही स्थित हो, उसमें स्थित क्या होना ? आप हैमें स्थित हो, तभी आने-जानेवाले दीखते हैं ।
 
किस पुरुषने किस परिस्थितिमें कौन-सी चेष्टा की, यह सिवाय उसके दूसरा कोई नहीं जान सकता । इसलिये किसीपर आक्षेप न करके सत्यका निर्णय करना चाहिये । दूसरेको सामने रखकर सत्यका निर्णय कभी नहीं हो सकता । अपनेको सामने रखो । यदि दूसरेका आदर्श लेना पड़े तो शुभ कार्योंमें ही लो, अशुभ कार्योंमें नहीं ।
 
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
 
‒ ‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे