।। श्रीहरिः ।।

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आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष कृष्ण षष्ठी, वि.सं.–२०७०, शनिवार
संयोग, वियोग और योग
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
गुरु भी वास्तवमें कोई नया ज्ञान नहीं देता, प्रत्युत जो ज्ञान शिष्यके भीतर पहलेसे ही विद्यमान है, उसकी तरफ लक्ष्य कराता है । लक्ष्य करानेसे तत्त्वकी जागृति हो जाती है । अगर गुरुके भीतर यह अभिमान आता है कि मैंने शिष्यको ज्ञान दे दिया, उसका अज्ञान मिटा दिया, उसका कल्याण कर दिया तो वह वास्तवमें गुरु है ही नहीं ! वास्तविक गुरुके भीतर तो यह भाव रहता है कि मैंने शिष्यकी बात ही उसको बतायी है, उसके अनुभवकी तरफ ही उसकी दृष्टि करायी है, नया कुछ नहीं दिया है । इसलिये तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त, भगवत्प्रेमी महात्माओंमें कभी यह स्कुरणा होती ही नहीं कि मैंने इसको कुछ दे दिया, इसका कल्याण कर दिया । परन्तु शिष्यकी दृष्टिसे देखें तो गुरुने कृपा करके इतना दे दिया जिसका कोई अन्त ही नहीं है ! दूसरा कोई इतना दे ही नहीं सकता । कारण कि अनन्त जन्मोंसे जिसकी तरफ लक्ष्य नहीं गया था, उस तत्त्वकी तरफ लक्ष्य करा दिया, जिससे उसकी जागृति हो गयी । अनादिकालसे संसारमें भटकते जीवको इतना दिया कि कुछ भी करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहा !
 
जैसे एक आदमी दिनभर खेतमें काम करता है तो शामको मालिक उसको पैसे देता है । अगर ऐसा मानें कि पैसे उसको काम करनेसे मिले तो फिर किसी जंगलमें जाकर काम करनेसे पैसे क्यों नहीं मिलते ? अगर ऐसा मानें कि पैसे मालिकसे मिलते हैं तो फिर बिना काम किये मालिक पैसे क्यों नहीं देता ? अत: वास्तवमें पैसे न तो काम करनेसे मिलते हैं और न मालिकसे मिलते हैं, प्रत्युत अपने प्रारब्धसे मिलते हैं । ऐसे ही तत्त्व न गुरुसे मिलता है, न भगवान्‌से मिलता है, प्रत्युत अपनी जिज्ञासासे मिलता है । अगर शिष्यमें जिज्ञासा न हो, तत्त्वको जाननेकी चाहना न हो तो गुरु क्या करेगा ?
दीन्ही थी लागी नहीं, बाँस नलीमें फूँक ।
गुरु बेचारा क्या करे,   चेले   माँही चूक ॥
 
इसलिये तत्त्वको जाननेके लिये कोई विशेष अधिकारी बननेकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत केवल जिज्ञासाकी जरूरत है । जिसके भीतर जिज्ञासा है, वह तत्त्वको जाननेका अधिकारी हो गया !
 
योग अनित्य नहीं है, प्रत्युत नित्य है । भगवान्‌ने भी योगको अव्यय कहा है‒‘इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् (गीता ४।१) । साधक कर्मयोग, ज्ञानयोग आदि किसी मार्गसे चले, अन्तमें उसको नित्य-योगकी ही प्राप्ति होगी । साधककी कर्मयोगमें रुचि है तो वह कर्मयोगसे नित्ययोगका अनुभव कर लेगा, ज्ञानयोगमें रुचि है तो वह ज्ञानयोगसे नित्ययोगका अनुभव कर लेगा, भक्तियोगमें रुचि है तो वह भक्तियोगसे नित्ययोगका अनुभव कर लेगा और ध्यानयोगमें रुचि है तो वह ध्यानयोगसे नित्ययोगका अनुभव कर लेगा । इस नित्ययोगका कभी किसी भी अवस्थामें अभाव नहीं होता । यह अज्ञान-अवस्थामें भी वैसा ही रहता है और ज्ञान-अवस्थामें भी वैसा ही रहता है । जाग्रत्-अवस्था हो, स्वप्न-अवस्था हो, सुषुप्ति-अवस्था हो, मूर्च्छा-अवस्था हो अथवा समाधि-अवस्था हो, यह नित्ययोग सदा ज्यों-का-त्यों रहता है, इसमें किञ्चिन्मात्र भी फर्क नहीं पड़ता ।
     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे