।। श्रीहरिः ।।

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आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष कृष्ण सप्तमी, वि.सं.–२०७०, सोमवार
संयोग, वियोग और योग
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
जो नित्य (वियोग) को महत्त्व दे, वह साधक है और जो अनित्य (संयोग) को महत्व दे, वह संसारी है । जो नित्यका आदर करता है, वह ज्ञानी है और जो अनित्यका आदर करता है, वह अज्ञानी है । नित्य तत्त्वको न पकड़कर अनित्य तत्त्वको पकड़ना ही जन्म-मरणका कारण है । गीतामें आया है‒
कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥
                                                                                      (१३।२१)
गुणोंका संग ही ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म होनेका कारण है ।’
 
गुणोंका संग अनित्य है और गुणोंसे असंगता नित्य है । असंगता अपना स्वरूप है‒‘असंगो ह्ययं पुरुष:’ (बृहदा४।३।१५) । अगर नित्य (गुणोंसे असंगता) को पकड़ें तो जन्म-मरण हो ही नहीं सकता ।
 
संयोग अनित्य है और वियोग नित्य है‒यह सम्पूर्ण वेदों और शास्त्रोंकी सार बात है । संसारके वियोगका अनुभव कर लेना ही नित्ययोग है‒‘तं विद्याद् दु:खसयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्’ (गीता ६।२३) । मिलना नित्य नहीं रहेगा, पर बिछुड़ना नित्य रहेगा । हम मिलनकी इच्छा रखते हैं, मिलनको महत्व देते हैं‒यह मूर्खता है । यह मूर्खता सत्संगसे मिटती है ।
 
संसारका वियोग नित्य है‒यह किसी एक व्यक्ति, मत, सम्प्रदाय, धर्म आदिकी बात नहीं है, प्रत्युत सबकी बात है । इसमें कोई मतभेद नहीं है । जिससे नित्य वियोग है, उसके संयोगको स्वीकार कर लिया, उसको सत्ता और महत्ता दे दी, इसीलिये नित्ययोगका अनुभव नहीं हो रहा है । जो नहीं’ है, उसको है’ मान लिया, इसीलिये है’ होते हुए भी दीखना बन्द हो गया । है’ तो सदा है’ ही रहता है, कभी नहीं’ में बदलता नहीं । सदा साथ रहनेवालेको देखनेका यही उपाय है कि सदा बिछुड़नेवालेको साथ न मानें । जिसका वियोग अवश्य होगा, उसके वियोगको वर्तमानमें ही स्वीकार कर लें । तात्पर्य है कि जिसका वियोग हो जायगा, उसमें राग न करें, उसको महत्त्व न दें, उसके प्रभावको स्वीकार न करें । जब सब संयोगोंका वियोग हो जायगा अर्थात् संयोगोंमें राग नहीं रहेगा, तब नित्ययोगका अनुभव हो जायगा ।
 
कुछ लोग ऐसी शंका करते हैं कि नित्ययोगका अनुभव होनेपर अर्थात् ज्ञान होनेपर व्यवहार कैसे होगा ? वास्तवमें ज्ञान अज्ञानका निवर्तक होता है, व्यवहारका निवर्तक नहीं होता । अत: ज्ञान होनेपर व्यवहारमें कोई बाधा नहीं आयेगी, प्रत्युत कामना, ममता, स्वार्थ आदि दोषोंके मिट जानेसे बड़ा अच्छा और सुन्दर व्यवहार होगा । उस व्यवहारसे स्वत:-स्वाभाविक सबका हित होगा ।
 
     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे