।। श्रीहरिः ।।

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आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
संयोग, वियोग और योग
 
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
संसारमें जितना भी संयोग देखनेमें आता है, सबका निरन्तर वियोग हो रहा है । संकल्प-विकल्प भी मिट रहे हैं । कोई बड़ी आफत आ जाय तो वह भी मिट रही है । किसी मनुष्यके मरनेका शोक होता है तो वह शोक भी बिना उद्योग किये, अपने-आप मिट जाता है । तात्पर्य है कि संसारकी सब चीजें वियुक्त होनेवाली, मिटनेवाली हैं और मिट रही हैं‒
ऊगा सोई आथवें,       फूला सो कुम्हलाय ।
चिण्या देवल ढह पड़े, जाया सो मर जाय ॥
 
अगर इस नित्यवियोगको अभी स्वीकार कर लें तो इतनेसे ही बड़ी शान्ति मिलेगी, मनकी हलचल मिटेगी । कोई आदमी मर जाता है तो हृदयमें एक धक्का लगता है । धन चला जाता है तो एक धक्का लगता है । क्यों धक्का लगता है ? उनके संयोगको स्थायी मान लिया, इसलिये धक्का लगता है । अत: पहलेसे ही यह स्वीकार कर लें कि इन सबका वियोग होनेवाला है । कोई मर गया, कोई चला गया तो नयी बात क्या हुई ! ये सब तो जानेवाले ही हैं । सूर्य अस्त होनेपर व्यवहारमें बाधा लग जाती है; परन्तु उदय हुआ है तो अस्त होगा ही’‒यह भाव होनेसे दुःख नहीं होता । इसी तरह जो जन्मा है, वह मरेगा ही; जो आया है, वह जायगा ही‒यह भाव होगा तो फिर किसीकी मृत्युपर अथवा जानेपर दुःख नहीं होगा । जैसे बालकपना चला गया तो अब उसको ला नहीं सकते, ऐसे ही जितनी चीजोंका वियोग हो गया, उनमेंसे किसी भी चीजको ला नहीं सकते और अभी जो चीजें हैं, वे भी जा रही हैं, उनको रख नहीं सकते । पहलेवाली चली गयी, अभीवाली जा रही है तो भविष्यमें आनेवाली कौन-सी टिकेगी ? जानेवालेको महत्ता क्या दें ? क्या जानेवाली, मिटनेवाली चीजकी भी कोई महत्ता होती है ? उसको महत्ता न दें तो नित्ययोगका अनुभव हो जायगा ।
 
संसार पहले भी हमारे साथ नहीं था, पीछे भी हमारे साथ नहीं रहेगा और अभी भी हमारे साथ नहीं है, इसलिये उससे नित्यवियोग है । परमात्मा पहले भी हमारे साथ थे, पीछे भी हमारे साथ रहेंगे और अभी भी हमारे साथ हैं, इसलिये उनसे नित्ययोग है । इस नित्यवियोग अथवा नित्ययोगका कोई चिन्तन नहीं करना है । यह तो है ही ऐसा । केवल इसका अनुभव करना है । यही सहजावस्था है ।
 
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
 
‒ ‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे