।। श्रीहरिः ।।

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आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष कृष्ण नवमी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
सत्य क्या है ?
 
 
हमें तो अपना उद्धार करना ही है, चाहे कुछ भी हो‒इस निश्चयकी लोगोंमें कमी है । यह इच्छा जितनी जोरदार होगी, उतनी ही संसारसे अरुचि हो जायगी । सत्संगमें पारमार्थिक बातोंको सुननेसे (अपने उद्धारकी) रुचि होती है, और सांसारिक भोग भोगनेके बाद (भोगोंसे) अरुचि होती है । तो इन दोनोंको स्थायी कर लें अर्थात् सत्संगकी रुचि और भोगकी अरुचि‒इन दोनोंको पक्का कर लें । यह आपका काम है ।
 
अभी सत्संगमें रुचि हो तो सत्संगसे उठते ही इस बातका निश्चय कर लें कि अब यही काम करना है, तो यह स्थायी हो जायगी । अगर यह स्थायी हो गयी तो सब काम बन गया । यह अपने उद्धारका काम बहुत सुगम है, केवल रुचिकी जरूरत है । भीतर एक बात जँची हुई है कि यह काम जल्दी नहीं होता, देरी लगती है । यह बहुत घातक चीज है । परमात्मतत्त्वके लिये भविष्यकी आशा बहुत ही घातक है । भविष्यकी आशा उस वस्तुके लिये होती है जो कर्मजन्य हो, जिससे देश-कालकी दूरी हो । पर जो सब देश, काल, वस्तु, अवस्था, परिस्थिति आदिमें पूर्णरूपसे विराजमान हो, उसके लिये भविष्य नहीं होता । सांसारिक कामोंके लिये जैसे भविष्यकी आशा होती है, वैसे परमात्मतत्त्वके लिये भी भविष्यकी आशा रखना कि इसमें बहुत समय लगेगा‒यह बहुत गलत धारणा है ।
 
मैं आपको वही बातें सुनाता हूँ, जो मुझे अच्छी लगती हैं और जिनसे मुझे बहुत लाभ हुआ है । आप इन बातोंका आदर करें तो बहुत जल्दी लाभ हो सकता है । जैसे एक राजाका राज्यकी सम्पूर्ण वस्तुओंपर, सम्पूर्ण गाँवोंपर शासन रहता है‒सम्बन्ध रहता है, उससे भी बहुत विशेष सम्बन्ध परमात्माका है । बहुत विशेष यह कि इन वस्तुओंकी सत्ता ही उस परमात्मासे दीख रही है । नहीं तो एक क्षण भी न ठहरनेवाला संसार सच्चा क्यों दीखता ! तो इससे परमात्माका नित्य-निरन्तर सम्बन्ध है ही । किसी क्षण भी उसका वियोग सम्भव नहीं, ऐसा उसका नित्ययोग निरन्तर बना हुआ है । संसारके संयोगके वियोगका नाम ही योग’ है‒‘तं विद्याद् दु:खसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ॥’ (गीता ६।२३) । इस क्षणभंगुर संसारसे वियोग स्वीकार करते ही योग हो जाता है । वियोग तो प्रतिक्षण हो ही रहा है । तो अभी ही वियोगका अनुभव कर लें ।
 
संसारके भोगोंसे अरुचि सबकी ही होती है । उस अरुचिको संसारी लोग स्थायी नहीं करते और भोगोंसे जो सुख मिलता है, उस रुचिको स्थायी करते हैं । यहीं गलती होती है । साधकको चाहिये कि वह उस अरुचिको स्थायी करे ।
 
प्रश्न‒संसारसे वियोगका अनुभव होनेपर उसकी नश्वरता या असत्यताका ज्ञान तो हो जाता है, लेकिन सत्य क्या है‒इसका पता कैसे लगेगा ? हम किस प्रकार जानें कि यह सत्य-तत्त्व है ?
 
उत्तर‒देखो भाई, मेरे विचारमें तो सत्यकी अभिलाषा कम है, इसलिये लगन नहीं है । सत्यकी बात इतनी सरल, इतनी बढ़िया और इतनी प्रत्यक्ष है कि क्या बताऊँ ! अब ध्यान दें । जिससे आपको असत्यका ज्ञान होता है, वही सत्य है । असत्यका ज्ञान असत्यसे नहीं होता । अब बताओ कितना नजदीक है वह सत्य !
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे