।। श्रीहरिः ।।

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आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष कृष्ण द्वादशी, वि.सं.–२०७०, शनिवार
दृश्यमात्र अदृश्यमें जा रहा है
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
आधी उम्र चली गयी‒यह बात तो आप मानते हो, पर आधा मर गये‒यह आपकी समझमें नहीं आता । पर वास्तवमें एक ही बात है । केवल शब्दोंमें अन्तर है, भावमें बिलकुल अन्तर नहीं । सुननेमें कड़ा इसलिये लगता है कि जीनेकी इच्छा है । पर बात सच्ची है । आधी उम्र चली गयी‒यह बात जँचती है, तो जँची हुई बातको ही मैं पक्का करता हूँ । इतना ही मेरा काम है । मैं कोई नयी बात नहीं सिखाता । तीन बातें होती हैं‒सीखी हुई, मानी हुई और जानी हुई । उसे पक्का मान लो, पक्का जान लो‒इतना ही मेरा कहना है । फिर बात हमेशा जाग्रत् रहेगी । उसमें संदेह नहीं होगा । तो जितनी उम्र बीत गयी, उसमें संदेह होता है क्या ? संदेह नहीं होता तो उतना मर गया‒इसमें संदेह कैसे रह गया ? शरीर हरदम जा रहा है, यह बात बिलकुल सच्ची है ।
 
मैं अपनी बीती बात बताऊँ कि जिस दिन मैंने यह समझा कि यह दृश्य अदृश्यमें जा रहा है, मुझे इतनी प्रसन्नता हुई कि ओहो ! कितनी मार्मिक बात है ! कितनी बढ़िया बात है ! मैं ठगायी नहीं करता हूँ, झूठ नहीं बोलता हूँ । आप थोड़ा ध्यान दो कि शरीर मरनेकी तरफ जा रहा है कि जीनेकी तरफ ? बिलकुल सच्ची बात है कि यह तो मरनेकी तरफ जा रहा है । दृश्य अदृश्यकी तरफ जा रहा है, तो यह मरनेकी तरफ जा रहा है । दृश्य अदृश्यमें जा रहा है तो वह भी मरनेकी तरफ जा रहा है । मेरे मनमें बात आयी कि जैसे बालक पाठ पढ़ता है तो उसे क,,,, एक बार याद हो गये, तो फिर याद हो ही गये । फिर उससे पूछो तो वह तुरन्त बता देगा । याद नहीं करना पड़ेगा । तो ऐसे आप भी चलते-फिरते हरदम याद कर लो कि यह सब जा रहा है । दृश्य अदृश्यमें जा रहा है । भाव अभावमें जा रहा है । जीवन मृत्युमें जा रहा है । दर्शन अदर्शनमें जा रहा है । इस प्रकार इसे हरदम याद रखो तो अपने-आप इसका प्रभाव पड़ जायेगा और बड़ा भारी लाभ होगा । बालककी तरह इस पाठको सीख लो । जितना सुखका लोभ है, जितना जीनेका लोभ है, उतना इस बातका आदर नहीं है । लोभ और आदर दो चीजें हैं । इस बातका आदर कम है, लोभका आदर ज्यादा है । आदर कम है, यही भूल है । तो आजसे ही इस बातका आदर करो ।
 
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
 
‒ ‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे
 
किसी बातको लेकर अपनेमें कुछ भी अपनी विशेषता दीखती है, यह वास्तवमें पराधीनता है ।
         अन्तमें अकेला ही जाना पड़ेगा, इसलिये पहलेसे ही अकेला हो जाय अर्थात्‌ वस्तु, व्यक्ति और क्रियासे असंग हो जाय, इनका आश्रय न ले ।
         ग्रहण करनेयोग्य सर्वोपरि एक नियम है‒भगवान्‌को याद रखना और त्याग करनेयोग्य सर्वोपरि एक नियम है‒कामनाका त्याग करना ।
          ‘सन्तोष’ समाज-सुधारका मूल मन्त्र है ।
‒ ‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे