।। श्रीहरिः ।।



 
आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक शुक्ल तृतीया, वि.सं.–२०७०, बुधवार
करणनिरपेक्ष साधन-शरणागति
 
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
कर्तृत्व-भोक्तृत्व ही संसार है । परमात्मतत्त्व कर्तृत्व-भोक्तृत्वसे अतीत है । सम्पूर्ण व्यवहार संसारमें होता है । जिसमें व्यवहार होता है, वह नाशवान् होता है और जिसमें कोई व्यवहार नहीं होता, वह अविनाशी होता है । संसार निरन्तर परिवर्तनशील है । एक नदीके किनारे कई सज्जन खड़े थे । वे कहने लगे कि देखो, नदी कैसे वेगसे बह रही है ! तो एक सन्तने कहा कि नदी भी बह रही है, उसका जल भी बह रहा है और उसपर जो पुल बना है, उसपर आदमी भी बह रहे हैं ! इतना ही नहीं, यह पुल भी बह रहा है ! इसपर प्रश्र उठता है कि पुल कैसे बह रहा है ? वह तो अपनी जगहपर ही है । इसका उत्तर है कि जब पुल बना था, उस समय यह जैसा नया था, वैसा नया आज नहीं रहा, प्रत्युत पुराना हो गया । इसका नयापना बह गया और पुरानापना आ गया । यह पुरानापना भी निरन्तर बह रहा है और बहते-बहते एक दिन यह पुल मिट जायगा । ऐसे ही यह नदी भी निरन्तर बह रही है और बहते-बहते एक दिन मिट जायगी । तात्पर्य है कि संसारकी प्रत्येक वस्तु बह रही है और बहते हुए नाशकी तरफ अर्थात् अभावकी तरफ जा रही है । एक दिन संसारका बहनापना भी नहीं रहेगा, उसका सर्वथा अभाव हो जायगा । मनुष्य समझते हैं कि हम जी रहे हैं, पर यह बिलकुल झूठी बात है । सच्ची बात तो यह है कि हम निरन्तर मर रहे हैं, एक-एक श्वासमें मर रहे हैं, एक-एक क्षणमें मर रहे हैं । किसी भी क्षण मरना बन्द नहीं होता । तात्पर्य है कि यह मृत्युरूपी क्रिया नाशवान् शरीरमें हो रही है, स्वरूपमें नहीं । अविनाशी तत्त्वमें कोई क्रिया होती ही नहीं । अत: उसको क्रियाके द्वारा नहीं पकड़ सकते ।
 
विवाह होनेपर कन्या पतिकी हो जाती है । वह मान लेती है कि ये मेरे पति हैं और पति मान लेता है कि यह मेरी पत्नी है‒इसमें क्या क्रिया है ? यह तो स्वीकृति है । स्वीकृतिमें क्रिया नहीं होती । परन्तु ‘मैं पतिकी हूँ‒इस स्वीकृतिमें और मैं भगवान्‌का हूँ’‒इस स्वीकृतिमें फर्क है । मैं पतिकी हूँ’‒यह स्वीकृति तो शरीरको लेकर है, पर मैं भगवान्‌का हूँ’‒यह स्वीकृति शरीरको लेकर नहीं है, प्रत्युत स्वरूप (तत्त्व)को लेकर है । स्त्री तो पतिकी बनती है, पहलेसे नहीं है, पर मैं भगवान्‌का हूँ’‒यह पहलेसे ही स्वतःसिद्ध है‒‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५।७), ‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी’ (मानस, उत्तर ११७।१) । जब पतिकी स्वीकृतिमें भी क्रिया नहीं है, फिर भगवान्‌की स्वीकृतिमें क्रिया कैसे होगी जो कि स्वतःसिद्ध है ? अत: मैं भगवान्‌का हूँ और भगवान्‌ मेरे हैं’‒यह स्वीकृति करणनिरपेक्ष साधन’ है ।
 
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे