।। श्रीहरिः ।।


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आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक  शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
करणनिरपेक्ष साधन-शरणागति
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
मैं भगवान्‌का हूँ और भगवान्‌ मेरे हैं‒यह स्वीकृति पहले करणके द्वारा अर्थात् मन, वाणी, बुद्धिसे होती है, पर इसमें जो हूँ’ है‒यह स्वीकृति करणके द्वारा नहीं होती, प्रत्युत स्वयंसे होती है । जैसे, जिस आदमीका विवाह हो चुका हो, उसको नींदसे उठाकर पूछो कि क्या तुम्हारा विवाह हो गया ? तो वह तुरन्त कहेगा कि हाँ, हो गया । वह यह विचार नहीं करेगा कि विवाह हुआ या नहीं हुआ । कारण कि मैं विवाहित हूँ’‒यह स्वीकृति स्वयंकी है । उसने मैं विवाहित हूँ’‒इसकी एक माला भी नहीं फेरी, एक बार भी अभ्यास नहीं किया, फिर भी वह इस बातको कभी भूलता नहीं । कारण कि यह स्वयंकी स्वीकृति है और मनुष्य स्वयंको कभी भूलता नहीं । इसी तरह मैं भगवान्‌का हूँ और भगवान्‌ मेरे हैं’‒यह स्वीकृति एक बार होती है और सदाके लिये होती है । इसमें किसी अभ्यासकी आवश्यकता नहीं है । सभी अभ्यास करणसापेक्ष साधन’ में होते हैं । श्रवण, मनन, निदिध्यासन, ध्यान, समाधि आदि सब करणसापेक्ष साधन हैं । परन्तु स्वयंकी स्वीकृति करणनिरपेक्ष साधन’ है । करणसापेक्ष साधनमें तो भूल हो जाती है, पर करणनिरपेक्ष साधनमें भूल होती ही नहीं । करणसापेक्ष साधनमें साधक योगभ्रष्ट भी हो सकता है, पर करणनिरपेक्ष साधनमें योगभ्रष्ट होता ही नहीं ।
 
जैसे स्त्री पतिको स्वीकार करती है, ऐसे ही भक्त भगवान्‌को स्वीकार करता है कि मैं भगवान्‌का हूँ’ । वास्तवमें मैं शरीर-संसारका हूँ’‒इस गलत मान्यताको हटानेके लिये मैं भगवान्‌का हूँ’‒इस स्वीकृतिकी जरूरत है, अन्यथा इस स्वीकृतिकी भी जरूरत नहीं है । तात्पर्य है कि मैं भगवान्‌का हूँ यह स्वीकृति अस्वीकृतिको मिटानेमें काम करती है, नया सम्बन्ध जोड़नेमें नहीं । जैसे मैं पतिकी हूँ’‒ऐसा माननेके लिये तो स्त्रीको कुछ करना नहीं पड़ता, पर पतिके घरका काम जन्मभर करना पड़ता है, ऐसे ही मैं भगवान्‌का हूँ’‒ऐसा माननेके लिये भक्तको कुछ करना नहीं है, पर भगवान्‌का काम जन्मभर करना है । उसको सांसारिक अथवा पारमार्थिक सब कार्य भगवान्‌के लिये ही करने हैं । जैसे पतिव्रता स्त्री सब काम पतिके सम्बन्धसे ही करती है । शरीरका काम भी पतिके सम्बन्धसे करती है । कपड़े भी पतिके सम्बन्धसे ही पहनती है । सुहागनके कपड़े और तरहके होते हैं, विधवाके कपड़े और तरहके । पतिके सम्बन्धसे ही वह सुहागन होती है और पतिके सम्बन्धसे ही वह विधवा होती है । वह शृंगार भी पतिके सम्बन्धसे करती है । पति पासमें हो तो और तरहका शृंगार होता है, पति दूर देशमें गया हो तो और तरहका शृंगार होता है । वह बिन्दी भी लगाती है तो पतिके सम्बन्धसे लगाती है । ऐसे ही भक्तका प्रत्येक काम भगवान्‌के लिये ही होता है‒
पतिवरता रहै पतिके पासा,
यों साहिबके ढिग रहै दासा ।
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे