।। श्रीहरिः ।।


-->
 
आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक शुक्ल पंचमी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
करणनिरपेक्ष साधन-शरणागति
 
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
कारण कि भक्त अपनी अहंताको बदल देता है कि मैं संसारका; नहीं हूँ मैं तो भगवान्‌का हूँ । यह अहंता-परिवर्तन एक ही बार होता है, दो बार नहीं । जब एक बार अपनेको दे दिया, तो फिर दुबारा देनेके लिये क्या रह गया ? देना एक ही बार होता है और सदाके लिये होता है । हमने अपनेको दे दिया तो अब कुछ भी करना बाकी नहीं रहा । अब तो नामजप करना है, कीर्तन करना है, भगवान्‌ और उनके भक्तोंकी लीलाएँ सुननी हैं, भगवान्‌के जनोंकी सेवा करनी है; क्योंकि इससे बढ़कर और कोई काम है नहीं । यह सब करके मैं भगवान्‌का हो जाऊँगा‒यह भाव उसमें रहता ही नहीं । क्या स्त्रीमें यह भाव रहता है कि मैं इतना काम करूँगी तो पतिकी होऊँगी, काम नहीं करूँगी तो नहीं होऊँगी ? वह बीमार हो जाय, कुछ भी न करे तो भी पतिकी ही है और सब काम करे तो भी पतिकी ही है । पतिके साथ कुछ करने या न करनेका सम्बन्ध नहीं है, प्रत्युत स्वीकृतिका सम्बन्ध है । इसी तरह भगवान्‌के साथ सम्बन्ध हो जाय तो भजन अपने-आप होगा, करना नहीं पड़ेगा । स्त्री तो विधवा भी हो सकती है, पर भक्तका सुहाग स्वतःसिद्ध है, अमर है, सदासे ही है ।
ज्यों तिरिया पीहर रहै, सुरति रहै पिय माहिं ।
ऐसे  जन  जगमें  रहै,    हरि  को  भूलै  नाहिं ॥
 
लड़की पीहरमें कुछ दिन रह जाती है, तो माँसे कहती है कि माँ, भाईसे कह कि मेरेको घर पहुँचा दे, उनको (पतिको) रोटीकी तकलीफ हो रही होगी ! वह रहती तो यहाँ है, पर चिन्ता उस घरकी है; क्योंकि वह समझती है कि मैं यहाँकी नहीं हूँ । इसी तरह भक्त जगत्‌में रहते हुए भी भगवान्‌को नहीं भूलता, प्रत्युत ऐसा समझता है कि जगत् मेरा नहीं है, मेरे तो भगवान्‌ हैं । यह करणनिरपेक्ष साधन’ है ।
 
करणनिरपेक्ष साधनमें अहंता बदल जाती है । जो पहले मानता था कि मैं संसारका हूँ, वह अहंता बदलनेपर मानता है कि मैं भगवान्‌का हूँ । जो पहले मानता था कि मैं ब्राह्मण हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, मैं वैश्य हूँ आदि, वह अहंता बदलनेपर मानता है कि मैं न ब्राह्मण हूँ, न क्षत्रिय हूँ, न वैश्य आदि हूँ, मैं तो भगवान्‌का हूँ ।
                          नाहं विप्रो न च नरपतिर्नापि वैश्यो न शूद्रो
                                            नो वा वर्णी न च गृहपतिर्नो वनस्थो यतिर्वा ।
                         किन्तु प्रोद्यन्निखिलपरमानन्दपूर्णामृताब्धे-
                                            र्गोपीभर्तुः       पदकमलयोर्दासदासानुदासः ॥
 
मैं न तो ब्राह्मण हूँ, न क्षत्रिय हूँ, न वैश्य हूँ, न शूद्र हूँ, न ब्रह्मचारी हूँ, न गृहस्थ हूँ, न वानप्रस्थ हूँ और न संन्यासी ही हूँ; किन्तु सम्पूर्ण परमानन्दमय अमृतके उमड़ते हुए महासागररूप गोपीकान्त श्यामसुन्दरके चरणकमलोंके दासोंका दासानुदास हूँ ।’
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे