।। श्रीहरिः ।।

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आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक शुक्लषष्ठी, वि.सं.–२०७०, शनिवार
श्रीसूर्यषष्ठीव्रत
करणनिरपेक्ष साधन-शरणागति
 
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
पहले गुरुके द्वारा शिष्यको जो दीक्षा दी जाती थी, उसका तात्पर्य भी अहंता बदलनेसे ही था । जैसे विवाहके समय ब्राह्मण कह देता है कि ‘बेटी, ये तेरे पति हो गये’ और वह स्वीकार कर लेती है, ऐसे ही गुरु शिष्यसे कह देता है कि ‘बेटा, अब तुम भगवान्‌के हो गये’ और वह स्वीकार कर लेता है अर्थात् मैं भगवान्‌का हूँ’‒इस तरह अपनी अहंता बदल देता है । गुरुमें यह भाव नहीं होता था कि यह मेरा चेला बन जाय, मेरी सेवा करे, भेंट-पूजा करे, मेरी टोली बनाये, मेरा पक्ष ले आदि । शिष्यके साथ गुरुका सम्बन्ध सांसारिक न होकर पारमार्थिक (कल्याणके लिये) होता था ।
 
अहंता बदलती है‒संसारका सम्बन्ध मिटानेके लिये, भगवान्‌से नया सम्बन्ध जोड़नेके लिये नहीं । कारण कि संसारका सम्बन्ध माना हुआ है और भगवान्‌का सम्बन्ध स्वतःसिद्ध है । मैं भगवान्‌का हूँ’‒इस तरह अहंता बदल जानेके बाद अहम् मिट जाता है अर्थात् व्यक्तित्व नहीं रहता । फिर भक्तकी प्रत्येक क्रिया भगवान्‌के लिये ही होती है । अपने लिये कुछ करना बाकी रहता ही नहीं । जब अपने-आपको भगवान्‌के अर्पित कर दिया तो फिर अपने लिये क्या करना बाकी रहा ? वह भगवान्‌की मरजीमें अपनी मरजी मिला देता है और प्रसन्न रहता है । बीमार हो जाय तो भगवान्‌की मरजी, स्वस्थ हो जाय तो भगवान्‌की मरजी, घाटा लग जाय तो भगवान्‌की मरजी, नफा हो जाय तो भगवान्‌की मरजी, निरादर हो जाय तो भगवान्‌की मरजी, आदर हो जाय तो भगवान्‌की मरजी, सब निन्दा करें तो भगवान्‌की मरजी, सब प्रशंसा करें तो भगवान्‌की मरजी । उसका बीमार-स्वस्थता, घाटा-नफा, निरादर-आदर आदिसे कोई सम्बन्ध नहीं रहता, केवल भगवान्‌से ही सम्बन्ध रहता है । विवाहमें तो कन्या वरको स्वीकार करती है और वर कन्याको स्वीकार करता है, तब दोनोंका सम्बन्ध होता है । परन्तु भगवान्‌ने तो सब जीवोंको पहलेसे ही स्वीकार कर रखा है‒
ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन: ।
                                                                                   (गीता १५।७)
इस संसारमें जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही सनातन अंश है ।’
सब मम प्रिय सब मम उपजाए
                                                                                           (मानस, उत्तर ८६।२)
मुख्य स्वीकृति बड़ेकी, मालिककी होती है । जैसे हम किसीकी गोद जायँ तो इसमें गोद लेनेवालेकी स्वीकृति मुख्य होती है । अगर वह हमें स्वीकार ही न करे तो हम उसकी गोद कैसे जायेंगे ? ऐसे ही भगवान्‌की स्वीकृति मुख्य है और उन्होंने पहलेसे ही हमें स्वीकार कर रखा है । हम भगवान्‌को स्वीकार कर लें, उनकी स्वीकृतिमें अपनी स्वीकृति मिला लें‒इसका नाम शरणागति है । यह करणनिरपेक्ष साधन’ है ।
 
     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे