।। श्रीहरिः ।।

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आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष शुक्ल अष्टमी, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
मूर्ति-पूजा
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
निराकारको माननेवाले साकार मूर्तिका खण्डन करते हैं तो वे वास्तवमें अपने इष्ट निराकारको ही छोटा बनाते हैं; क्योंकि उनकी धारणासे ही यह सिद्ध होता है कि साकारकी जगह उनका निराकार नहीं है अर्थात् उनका निराकार एकदेशीय है ! अगर वे साकार मूर्तिमें भी अपने निराकारको मानते तो फिर वे साकारका खण्डन ही क्यों करते ? दूसरी बात, निराकारकी उपासना करनेवाले ‘परमात्मा साकार नहीं हैं, उनका अवतार भी नहीं होता, उनकी मूर्ति भी नहीं होती’ऐसा मानते हैं; अत: उनका सर्वसमर्थ परमात्मा अवतार लेनेमें, साकार बननेमें असमर्थ (कमजोर) हुआ अर्थात् उनका परमात्मा सर्वसमर्थ नहीं रहा । वास्तवमें परमात्मा ऐसे नहीं हैं । वे साकार-निराकार आदि सब कुछ हैं‒‘सदसच्चाहम्’ (गीता ९।१९) । अत: विचार करना चाहिये कि हमें अपना कल्याण करना है या साकार-निराकारको लेकर झगड़ा करना है ? अगर हम अपनी रुचिके अनुसार साकारकी अथवा निराकारकी उपासना करें तो हमारा कल्याण हो जाय‒
तेरे भावै जो करौ,      भलौ बुरौ संसार ।
‘नारायन’ तू बैठिके, अपनौ भवन बुहार ॥
 
अगर झगड़ा ही करना हो तो संसारमें झगड़ा करनेके बहुत-से स्थान हैं । धन, जमीन, मकान आदिको लेकर लोग झगड़ा करते ही हैं । परन्तु पारमार्थिक मार्गमें आकर झगड़ा क्यों छेड़ें ? अगर हम साकार या निराकारकी उपासना करते हैं तो हमें दूसरोंके मतका खण्डन करनेके लिये समय कैसे मिला ? दूसरोंका खण्डन करनेमें हमने जितना समय लगा दिया, उतना समय अगर अपने इष्टकी उपासना करनेमें लगाते तो हमें बहुत लाभ होता ।
 
दूसरोंका खण्डन करनेसे हमारी हानि यह हुई कि हमने अपने इष्टका खण्डन करनेके लिये दूसरोंको निमन्त्रण दे दिया ! जैसे, हमने निराकारका खण्डन किया तो हमने अपने इष्ट-(साकार-) का खण्डन करनेके लिये दूसरोंको निमन्त्रण दिया, अवकाश दिया कि अब तुम हमारे इष्टका खण्डन करो । अत: इस खण्डनसे न तो हमारेको कुछ लाभ हुआ और न दूसरोंको ही कुछ लाभ हुआ । दूसरी बात, दूसरोंका खण्डन करनेसे कल्याण होता है‒यह उपाय किसीने भी नहीं लिखा । जिन लोगोंने दूसरोंका खण्डन किया है, उन्होंने भी यह नहीं कहा कि दूसरोंका खण्डन करनेसे तुम्हारा भला होगा, कल्याण होगा । अगर हम किसीके मतका, इष्टका खण्डन करेंगे तो इससे हमारा अन्तःकरण मैला होगा, खण्डनके अनुसार ही द्वेषकी वृत्तियों बनेंगी, जिससे हमारी उपासनामें बाधा लगेगी और हम अपने इष्टसे विमुख हो जायँगे । अत: मनुष्यको किसीके मतका, किसीके इष्टका खण्डन नहीं करना चाहिये, किसीको नीचा नहीं समझना चाहिये, किसीका अपमान-तिरस्कार नहीं करना चाहिये; क्योंकि सभी अपनी-अपनी रुचिके अनुसार, भाव और श्रद्धा-विश्वाससे अपने इष्टकी उपासना करते हैं । परमात्मा साधकके भावसे, प्रेमसे, श्रद्धा-विश्वाससे ही मिलते हैं । अत: अपने मतपर, इष्टपर श्रद्धा-विश्वास करके उस मतके अनुसार तत्परतासे साधनमें लग जाना चाहिये । यही परमात्माको प्राप्त करनेका मार्ग है । दूसरोंका खण्डन करना, तिरस्कार करना परमात्मप्राप्तिका साधन नहीं है, प्रत्युत पतनका साधन है ।
 
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मूर्ति-पूजा और नाम-जपकी महिमा’ पुस्तकसे