।। श्रीहरिः ।।

-->
 
आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष शुक्ल नवमी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
मूर्ति-पूजा
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
जिन सन्तोंने मूर्तिपूजाका खण्डन किया है, उन्होंने (मूर्तिपूजाके स्थानपर) नाम-जप, सत्संग, गुरुवाणी, भगवच्चिन्तन, ध्यान आदिपर विशेष जोर दिया है । अत: जिन लोगोंने मूर्तिपूजाका तो त्याग कर दिया, पर जो अपने मतके अनुसार नाम-जप आदिमें तत्परतासे नहीं लगे, वे तो दोनों तरफसे रीते ही रह गये ! उनसे तो मूर्तिपूजा करनेवाले ही श्रेष्ठ हुए जो अपने मतके अनुसार साधन तो करते हैं ।
 
इसपर कोई यह कहे कि हमारा दूसरोंका खण्डन करनेमें तात्पर्य नहीं है, हम तो अपनी उपासनाको दृढ़ करते हैं, अपना अनन्यभाव बनाते हैं, तो इसका उत्तर यह है कि दूसरोंका खण्डन करनेसे अनन्यभाव नहीं बनता । अनन्यभाव तो यह है कि हमारे इष्टके सिवाय दूसरा कोई तत्त्व है ही नहीं । हमारे प्रभु सगुण भी हैं और निर्गुण भी । सब हमारे प्रभुके ही रूप हैं । दूसरे लोग हमारे प्रभुका चाहे दूसरा नाम रख दें, पर हैं हमारे प्रभु ही । हमारे प्रभुकी अनेक रूपोंमें तरह-तरहसे उपासना होती है । अत: जो निर्गुणको मानते हैं, वे हमारे सगुण प्रभुकी महिमा बढ़ा रहे हैं; क्योंकि हमारा सगुण ही तो वहाँ निर्गुण है । इसलिये निर्गुणकी उपासना करनेवाले हमारे आदरणीय हैं । ऐसा करनेसे ही अनन्यभाव होगा । किसीका खण्डन करना अनन्यभाव बननेका साधन नहीं है । जो मनुष्य श्रद्धा-विश्वासपूर्वक, सीधे-सरल भावसे अपने इष्टकी उपासनामें लगे हुए हैं, उनके इष्टका, उनकी उपासनाका खण्डन करनेसे उनके हृदयमें ठेस पहुँचेगी, उनको दुःख होगा तो खण्डन करनेवालेको बड़ा भारी पाप लगेगा, जिससे उसकी उपासना सिद्ध नहीं होगी ।
 
अनन्यताके नामपर दूसरोंका खण्डन करना अच्छाईके चोलेमें बुराई है । बुराईके रूपमें बुराई आ जाय तो उससे भला आदमी बच सकता है, पर जब अच्छाईके रूपमें बुराई आ जाय तो उससे बचना बड़ा कठिन होता है । जैसे, सीताजीके सामने रावण और हनुमान्‌जी के सामने कालनेमि साधुवेशमें आ गये तो सीताजी और हनुमान्‌जी भी धोखेमें आ गये । अर्जुनने भी हिंसाके बहाने अपने कर्तव्यसे च्युत होनेकी बात पकड़ ली कि दुर्योधनादि धर्मको नहीं जानते, उनपर लोभ सवार हुआ है, पर मैं धर्मको जानता हूँ, मेरेमें लोभ नहीं है, मैं अहिंसक हूँ आदि । इस प्रकार अर्जुनमें भी अच्छाईके चोलेमें बुराई आ गयी । उस बुराईको दूर करनेमें भगवान्‌को बड़ा जोर पड़ा, लम्बा उपदेश देना पड़ा । अगर अर्जुनमें बुराईके रूपमें ही बुराई आती तो उसको दूर करनेमें देरी नहीं लगती । ऐसे ही अनन्यभावके रूपमें खण्डनरूपी बुराई आयी और हमने अपना अमूल्य समय, सामर्थ्य, समझ आदिको दूसरोंका खण्डन करनेमें लगा दिया तो इससे हमारा ही पतन हुआ ! अत: साधकको चाहिये कि वह बड़ी सावधानीके साथ अपने समय, योग्यता, सामर्थ्य आदिको अपने इष्टकी उपासनामें ही लगाये ।
 
प्रश्न‒भगवान्‌की स्वयंभू मूर्ति कैसे बनती है ?
 
उत्तर‒स्वयंभू मूर्ति बनती हो, तभी यह प्रश्र उठ सकता है कि स्वयंभू मूर्ति कैसे बनती है ! स्वयंभू मूर्ति बनती ही नहीं । वह स्वयं प्रकट होती है, तभी उसका नाम स्वयंभू है, नहीं तो वह स्वयंभू कैसे ?
 
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मूर्ति-पूजा और नाम-जपकी महिमा’ पुस्तकसे