।। श्रीहरिः ।।

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आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
मोक्षदा एकादशी-व्रत (सबका), श्रीगीता-जयन्ती
मैं शरीर नहीं हूँ
 

अपनेको शरीर माननसे ही जन्म-मरण, दुःख, संताप, चिन्ता आदि सभी आफतें आती हैं । शरीर अपना स्वरूप है नहीं, यह प्रत्यक्ष है । बचपनमें जैसा शरीर था, वैसा अब नहीं है; अब इतना बदल गया कि पहचान नहीं होती, परंतु मैं वही हूँ’इसमें सन्देहकी कहीं गुंजाइश भी नहीं है । तो कम-से-कम यह विचार करें कि शरीर मैं नहीं हूँ । मैं न स्थूल शरीर हूँ, न सूक्ष्म शरीर हूँ और न कारण शरीर हूँ । स्थूल शरीरकी स्थूल संसारके साथ एकता है‒
छिति जल पावक गगन समीरा ।
पंच रचित अति   अधम सरीरा ॥
                                                                       (मानस ४।११।२)
 
अब वह कौन-सा शरीर है, जो इन पाँचोंसे रहित है ? संसारके साथ शरीरकी बिलकुल अभिन्नता है । संसार यह’ नामसे कहा जाता है, फिर उसका एक छोटा-सा अंश मैं’ कैसे हो गया ? ऐसे ही सूक्ष्म शरीरकी सूक्ष्म संसारके साथ एकता है । पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण, मन, बुद्धि‒ये सब सूक्ष्म संसारके ही अंश हैं । यह जो वायु चलता है, इसीके साथ प्राणोंकी एकता है । ऐसे ही सब इन्द्रियों, मन, प्राण, आदिकी एकता है । सब एक ही धातुके हैं । ऐसे ही कारण शरीरकी कारण संसारके साथ एकता है । सूक्ष्म शरीरसे आगे कुछ पता नहीं लगता, ऐसा जो अज्ञान है, वह कारण शरीर है । इसमें प्रकृति (स्वभाव) होती है । प्रकृति सबकी भिन्न-भिन्न होनेपर भी धातु (पंचमहाभूत) एक है, ऐसे प्रकृति एक है । सुषुप्तिमें सभी एक हो जाते हैं, भिन्नता रहती ही नहीं । तो इस प्रकार कारण शरीर सब एक ही हुए । अब इसमें यह मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ, यह मेरा है और यह मेरा नहीं है‒यह बात सच्ची नहीं है । यह व्यवहारके लिये कामकी है । अपनेको शरीर मानना गलती है । इस गलतीको हम आज मिटा दें तो महान् शान्ति मिल जाय, बड़ा भारी आनन्द मिल जाय । पर सुनकर केवल सीख लेनेसे यह गलती नहीं मिटती । यह शरीर इदंतासे दीखना चाहिये‒‘इदं शरीरम्’ (गीता १३।१) । जैसे यह छप्पर अलग दीखता है, ऐसे शरीरका भी अनुभव होना चाहिये कि यह अलग है, मैं इसे जाननेवाला हूँ । इसे सीखना नहीं है । सीखना या मानना ज्ञान नहीं होता । दृढ़ मान्यता भी ज्ञान‒जैसी प्रतीत होती है, पर मान्यता मान्यता ही होती है, बोध नहीं । उसका साफ-साफ बोध होना चाहिये । परिवर्तनशील वस्तु मेरा स्वरूप नहीं है‒ऐसा अनुभव हो जाय, तो तत्त्वज्ञान हो गया, मुक्ति हो गयी, परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो गयी, स्वरूपकी प्राप्ति हो गयी । और वह नित्यप्राप्तकी प्राप्ति है; क्योंकि अपना स्वरूप अप्राप्त हुआ ही कब ? और जो प्रतिक्षण बदलता है, वह कभी किसीको प्राप्त कैसा ? वह कभी किसीको प्राप्त हुआ ही नहीं । प्राप्त तो स्वरूप ही है । परंतु अप्राप्तको प्राप्त माननेसे जो प्राप्त है, वह अप्राप्त जैसा हो गया । जबतक अप्राप्तको अप्राप्त नहीं मानेंगे तबतक प्राप्तकी प्राप्ति नहीं दीखेगी ।
 
सुनकर सीख लेने और मान लेनेका नाम ज्ञान नहीं है । ज्ञान ऐसी चीज नहीं है । ज्ञान तो एकदम, उसी क्षण होता है । उसमें अभ्यास नहीं है । अभ्यास करना उपासना है । उपासना उपासना ही है, बोध नहीं । शरीर मैं हूँ‒ऐसा दीखनेपर बेचैनी हो जाय तो बोध हो जायगा । जैसे नींदमें पड़े हुए आदमीको सूई चुभाई जाय, तंग किया जाय तो चट नींद खुल जाती है । ऐसे ही अपनेको शरीर माननेका दुःख, जलन पैदा हो जाय कि क्या करूँ ? कैसे करूँ ? यह अभ्यास कैसे मिटे ? तो फिर यह मिट जायगा । जो चीज मिटती है, वह होती नहीं और जो चीज होती है वह मिटती नहीं‒‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत: ।’ (गीता २।१६) शरीरमें मैं-पन और मेरा-पन मिटता है, तो मूलमें है नहीं‒यह पक्की बात है ।
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे