।। श्रीहरिः ।।

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आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी, वि.सं.–२०७०, शनिवार
मैं शरीर नहीं हूँ
 
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
सबसे पहले साधकको दृढ़ताके साथ यह मानना चाहिये कि शरीर मैं हूँ और यह मेरा है’ यह बिलकुल झूठी बात है । हमारी समझमें नहीं आये, बोध नहीं हो, तो कोई बात नहीं । पर शरीर मैं नहीं हूँ’ और मेरा नहीं है, नहीं है, नहीं है’ऐसा पक्का विचार किया जाय, जोर लगाकर । जोर लगानेपर अनुभव नहीं होगा, तब वह व्याकुलता, बेचैनी पैदा हो जायगी, जिससे चट बोध हो जायगा ।
 
शरीर मैं नहीं हूँ‒इस बातमें बुद्धि भले ही मत ठहरे, आप ठहर जाओ ! बुद्धि ठहरना या नहीं ठहरना कोई बड़ी बात नहीं है । यह मैं नहीं हूँ‒यह खास बात है । अहं ब्रह्मास्मि’ मैं ब्रह्म हूँ’यह इतना जल्दी लाभदायक नहीं है, जितना यह मैं नहीं हूँ’ यह लाभदायक है । दोनों तरहकी उपासनाएँ हैं; परंतु यह मैं नहीं हूँ’ इससे चट बोध होगा । लेकिन खूब विचार करके पहले यह तो निर्णय कर लो कि शरीर मैं’ और मेरा’ कभी नहीं हो सकता । ऐसा पक्का, जोरदार विचार करनेपर अनुभव नहीं होनेसे दुःख होगा । उस दुःखमें एकदम शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेकी ताकत है । वह दुःख जितना तीव्र होगा, उतना ही जल्दी काम हो जायगा ।
 
मैं क्या हूँ ?’ ऐसा विचार मत करो । इसमें मन-बुद्धि साथमें रहेंगे । जड़की सहायताके बिना मैं क्या हूँ ?’ ऐसा प्रश्र उठ ही नहीं सकता, और समाधान भी जड़को साथ लिये बिना कर ही नहीं सकते । इसलिये जड़की सहायतासे जड़की निवृत्ति एवं चिन्मयताकी प्राप्ति नहीं होती, नहीं होती, नहीं होती । मैं चिन्मय हूँ’ इसमें बुद्धिकी सहायता है और अहंता भी साथमें रहेगी ही । पर यह जड़ मैं नहीं हूँ, नहीं हूँ, नहीं हूँ’ तो इसमें जड़तापर नहीं’ का जोर लगेगा । चिन्तन भी जड़ताका है और निषेध भी जड़ताका है । तो जैसे झाडू और कूड़ा-करकट एक धातुके हैं, और झाडूसे कूड़ा-करकट साफ करके झाड़ू भी बाहर फेंक दिया जाय, तो साफ मकान पीछे रह जायगा, उसके लिये उद्योग नहीं करना पड़ेगा, ऐसे ही जड़ताके द्वारा जड़ताकी निवृत्ति करनेपर ब्रह्म पीछे रह जाता है, उस-(ब्रह्म-) के लिये उद्योग नहीं करना पड़ता । बिना प्रकृतिकी सहायता लिये उद्योग होता ही नहीं ।
 
मैं यह नहीं हूँ’इसमें मैं’ और यह’ एक जातिके हैं । यह जो मैं’ है, यह दो तरफ जाता है । एक मैं’ जड़ताकी तरफ जाता है और एक मैं’ चेतनताकी तरफ जाता है । चेतनताकी तरफ मैं’ माननेसे (कि मैं चिन्मय हूँ’) जड़ताका मैं’ मिटेगा नहीं और जड़ताकी तरफ मैं’ माननेसे (कि मैं यह नहीं हूँ’) स्वत: रहेगा । इसलिये साधकके लिये मैं यह हूँ’ कि अपेक्षा मैं यह नहीं हूँ’ बहुत ज्यादा उपयोगी है । मैंने दोनों तरहकी बातें पढ़ी हैं और उनपर गहरा विचार किया है । इसलिये मैं अपनी धारणा कहता हूँ । आपको नहीं जँचे तो आप जैसा चाहें करें । पर निषेधात्मक साधनसे स्वरूपमें स्थिति जितनी जल्दी होती है, उतनी जल्दी विध्यात्मक साधनसे नहीं होती । ऐसे ही दुर्गुण-दुराचारोंका त्याग किया जाय, तो सद्गुण-सदाचार जल्दी आयेंगे । जैसे मैं सत्य बोलूँगा’ इस बातमें जितना अभिमान रहेगा, उतना मैं झूठ नहीं बोलूँगा’ इसमें अभिमान नहीं रहेगा । झूठ नहीं बोलकर कौन-सा बड़ा भारी काम कर लिया, और सत्य बोलकर बड़ा भारी काम कर लिया‒ऐसा भाव रहेगा ! इसलिये सत्य बोलनेका अभिमान जल्दी टूटेगा नहीं ।
 
बुद्धि साथमें रहनेपर जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद हो ही नहीं सकता; क्योंकि जिससे सम्बन्ध-विच्छेद करना है, उस-(शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि-) को ही साथ ले लिया ! इस तरफ विचार न करनेसे ही बहुत वर्ष लग जाते हैं । साधक सोचता रहता है, चिन्तन करता रहता है और स्थिति वही-की-वही रहती है । जैसे कोल्हूका बैल उम्रभर चलता है, पर वहीं-का-वहीं रहता है, वैसी दशा रहती है साधककी ! इसलिये इस विषयपर खूब गहरा विचार करनेकी आवश्यकता है ।
 
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
 
‒ ‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे