।। श्रीहरिः ।।

-->
 
आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.–२०७०, सोमवार
अमावास्या
मूर्ति-पूजा
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
ज्ञातव्य
भगवान् सब जगह परिपूर्ण हैं‒ऐसा प्राय: सभी आस्तिक मानते हैं; परंतु वास्तवमें ऐसा मानना उन्हींका है, जिन्होंने मूर्ति, वेद, सूर्य, पीपल, तुलसी, गाय आदिमें भगवान्‌को मानकर उनका पूजन शुरू कर दिया है । कारण कि जो मूर्ति, वेद, सूर्य आदिमें भगवान्‌को मानते हैं, वे स्वत: सब जगह सब प्राणियोंमें भगवान्‌को मानने लग जायँगे । जो केवल मूर्ति आदिमें ही भगवान्‌को मानते हैं, उनको ‘प्राकृत (आरम्भिक) भक्त’ कहा गया है* । क्योंकि उन्होंने एक जगह भगवान्‌का पूजन शुरू कर दिया; अत: वे भगवान्‌के सम्मुख हो गये । परन्तु जो केवल ‘भगवान् सब जगह हैं’ऐसा कहते हैं, पर उनका कहीं भी आदरभाव, पूज्यभाव, श्रेष्ठभाव नहीं है, उनको भक्त नहीं कहा गया है; क्योंकि वे ‘भगवान् सब जगह हैं’ऐसा केवल कहते हैं, मानते नहीं; अत: वे भगवान्‌के सम्मुख नहीं हुए ।
 
मूर्तिमें भगवान्‌का पूजन श्रद्धाका विषय है, तर्कका विषय नहीं । जिनमें श्रद्धा है, उनके सामने भगवान्‌का महत्त्व प्रकट हो जाता है । उनके द्वारा की गयी पूजाको भगवान् ग्रहण करते हैं । उनके हाथसे भगवान् प्रसाद ग्रहण करते हैं । जैसे, करमाबाईसे भगवान्‌ने खिचड़ी खायी, धन्ना भक्तसे भगवान्‌ने टिक्कड़ खाये, मीराबाईसे भगवान्‌ने दूध पिया आदि-आदि । तात्पर्य है कि श्रद्धा-भक्तिसे भगवान् मूर्तिमें प्रकट हो जाते हैं ।
 
प्रश्न‒भक्तलोग भगवान्‌को भोग लगाते हैं तो भगवान् उसको ग्रहण करते हैं‒इसका क्या पता ?
 
उत्तर‒भगवान्‌के दरबारमें वस्तुकी प्रधानता नहीं है, प्रत्युत भावकी प्रधानता है । भावके कारण ही भगवान् भक्तके द्वारा अर्पित वस्तुओं और क्रियाओंको ग्रहण कर लेते हैं । भक्तका भाव भगवान्‌को भोजन करानेका होता है तो भगवान्‌को भूख लग जाती है और वे प्रकट होकर भोजन कर लेते हैं । भक्तके भावके कारण भगवान् जिस वस्तुको ग्रहण करते हैं वह वस्तु नाशवान् नहीं रहती, प्रत्युत दिव्य, चिन्मय हो जाती है । अगर वैसा भाव न हो, भावमें कमी हो तो भी भगवान् भक्तके द्वारा भोजन अर्पण करनेमात्रसे सन्तुष्ट हो जाते हैं । भगवान्‌के सन्तुष्ट होनेमें वस्तु और क्रियाकी प्रधानता नहीं है, प्रत्युत भावकी ही प्रधानता है । सन्तोंने कहा है‒
भाव भगत की राबड़ी, मीठी लागे ‘वीर’ ।
बिना भाव ‘कालू’ कहे कड़वी लागे खीर ॥
 
हमें एक सज्जन मिले थे । उनकी एक सन्तपर बड़ी श्रद्धा थी और वे उनकी सेवा किया करते थे । वे कहते थे कि जब महाराजको प्यास लगती तो मेरे मनमें आती कि महाराजको प्यास लगी है; अत: मैं जल ले जाता और वे पी लेते । ऐसे ही जो शुद्ध पतिव्रता होती है, उसको पतिकी भूख-प्यासका पता लग जाता है तथा पतिकी रुचि भोजनके किस पदार्थमें है‒इसका भी पता लग जाता है । भोजन सामने आनेपर पति भी कह देता है कि आज मेरे मनमें इसी भोजनकी रुचि थी । इसी तरह जिसके मनमें भगवान्‌को भोग लगानेका भाव होता है, उसको भगवान्‌की रुचिका, भूख-प्यासका पता लग जाता है ।
 
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मूर्ति-पूजा और नाम-जपकी महिमा’ पुस्तकसे
________________
*अर्चायामेव   हरये    पूजां    यः   श्रद्धयेहते ।
    न तद्भक्तेषु चान्येषु स भक्त: प्राकृत: स्मृतः ॥
                                                     (श्रीमद्भा ११।२।४७)