(गत ब्लॉगसे आगेका)
आपका कहना मैं मानूँ और मेरा कहना आप मानो । इससे अपने दोनोंको ही लाभ होगा । परन्तु यह कब होगा ?जब कहनेवाला अपनेमें अभिमान न करे कि मैं तो जानकार हूँ और ये अनजान हैं । हमें भी जानकारी करनी है और आपको भी जानकारी करनी है‒ऐसा समझकर विचार करें तो हमारी जानकारी बढ़ेगी और ज्ञान होगा ।
श्रोता‒पुराना लिया हुआ सुख बराबर याद आता रहता है !
स्वामीजी‒तो फिर सुखभोगका नतीजा अच्छा नहीं निकला है न ? अभीतक उस पुराने सुखभोगके संस्कार पड़े हुए हैं । अभीतक उन संस्कारोंसे हमारा छुटकारा नहीं हुआ है । अत: अब इस सुखभोगकी आसक्तिको छोड़ना चाहिये‒यह सिद्ध होता है ।सुखकी लोलुपता कैसे छूटे ? यह प्रश्न है । सुखकी लोलुपतामें आकर हम फँस जाते हैं । जानते हुए,कहते हुए समझते हुए पढ़ते हुए भी उसमें फँस जाते हैं । अत: उससे छूटनेके लिये बड़ा सीधा सरल उपाय है कि दूसरेको सुख कैसे पहुँचे ? यह भाव बना लें ।
घरमें माँ-बापको सुख कैसे हो ? स्त्रीको सुख कैसे हो? बच्चोंको सुख कैसे हो ? भाई-भौजाईको सुख कैसे हो ?पड़ोसियोंको सुख कैसे हो ? दुनियाको सुख कैसे हो ?मित्रोंको सुख कैसे हो ? मेरे द्वारा क्या सेवा की जाय, जिससे इनको सुख हो जाय, इनका हित हो जाय, इनका कल्याण हो जाय ? इनकी बात कैसे रहे ? इनका आदर कैसे रहे ? इनकी प्रशंसा कैसे हो ?‒यह वृत्ति अगर आपकी जोरदार हो जायगी तो सुखभोगकी रुचि मिट जायगी ।
बहुत प्रीति पुजाइबे पर, पूजिबे पर थोरि ।
(विनयपत्रिका १५८)
पुजानेकी तो ज्यादा प्रीति है और पूजनेकी थोड़ी है । सुख लेनेकी तो ज्यादा इच्छा है और सुख देनेकी थोड़ी है । अगर देनेकी ही इच्छा हो जाय तो काम ठीक हो जायगा ।
श्रोता‒सुख लेनेमें तो तत्काल सुख मिलता है, पर सुख देनेमें तत्काल सुख मिलता नहीं ।
स्वामीजी‒पढ़ाई करते समय बालकको पढ़ाईमें सुख नहीं दीखता, खेलमें सुख दीखता है । परन्तु गुरुजनोंके पढ़ानेसे पढ़ना शुरू कर देता है और कुछ परीक्षाएँ पास कर लेता है तो पढ़ाईमें लगन लग जाती है । अत: पहले यह सूखी शिलाकी तरह है । सूखी शिलामें न नमक है, न चीनी है, कोई स्वाद नहीं, तो सूखी शिला कैसे चाटी जाय ? परन्तु कोई कह दे कि चाटो, ठीक हो जायगा तो उसके कहनेसे चाटने लग जाओ । ऐसे ही ये कहते हैं, इसलिये इस सुखको छोड़ दो और दूसरोंको सुख दो । इतना विश्वास तो है कि ये हमारे हितके लिये कहते हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे
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