(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान्के वचन हमारे कल्याणके लिये हैं, इसलिये उनके कहनेसे शुरू कर दो । भगवान्ने कहा कि सात्त्विक सुख आरम्भमें जहरकी तरह है और परिणाममें अमृतकी तरह है‒‘यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्’ (गीता १८ । ३७)। आरम्भमें जहरकी तरह है‒यह बात पहले मेरी समझमें नहीं आयी । सात्त्विकतामें तो आरम्भमें ही आनन्द है, सुख है और भगवान् आरम्भमें जहरकी तरह कहते हैं‒यह कैसे ?विचार करनेपर समझमें आया कि राजस-तामस सुखका त्याग करनेमें कठिनता आती है, इसलिये सात्त्विक सुख पहले जहरकी तरह दीखता है । आप इस बातपर विचार करो कि दूसरोंको सुख कैसे हो । दूसरेकी बात कैसे रहे ? दूसरेका कल्याण कैसे हो ? भगवान् कहते हैं कि जिनकी प्राणिमात्रके हितमें प्रीति होती है, वे मेरेको प्राप्त होते हैं‒‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:’ (गीता १२ । ४) । जो हमें दुःख देते हैं, उनको भी सुख कैसे हो ?‒ ‘उमा संत कइ इहई बड़ार्ड़ । मंद करत जो करइ भलाई ॥’ (मानस ५ । ४१ । ४) । फिर सन्तपना आ जायगा ।
दूसरोंका हित करनेमें ही हमारा हित है । जैसे, हम दर्पणमें अपना मुख देखते हैं तो अगर हमारा मुख पूर्वकी तरफ होगा तो दर्पणमें हमारा मुख पश्चिमकी तरफ होगा ।हमारा दायाँ उसमें बायाँ और हमारा बायाँ उसमें दायाँ दीखेगा । अब दर्पणमें जैसा दीखता है, उसके अनुसार हम चलेंगे तो उलटे चले जायँगे । संसाररूपी दर्पणमें सुख लेना अच्छा दीखता है और सुख देना बुरा दीखता है । अब उसीके अनुसार चलेंगे तो दशा बुरी होगी; क्योंकि ज्ञान आरम्भमें ही उलटा हो गया ! ‘धुर बिगड़े सुधरे नहीं कोटिक करो उयाय ।’ आरम्भमें ही काम बिगड़ गया ! दीखता ऐसा है कि हमारा स्वार्थ सिद्ध हो जायगा, हमें सुख मिल जायगा, पर परिणाममें दुःख ही मिलेगा । इसलिये अगर अपना कल्याण चाहते हो तो इस चालको बदलना होगा, नहीं तो आफत-ही-आफत आयेगी । दूसरेको सुख देनेसे अपने सुख-भोगकी इच्छा मिटती है‒यह बात एकदम सबके अनुभवकी है ।
श्रोता‒सेवा करनेसे तत्काल सुख तो नहीं मिलता,पर तत्काल अभिमान जरूर आता है !
स्वामीजी‒अभिमानमें भी तो एक सुख मिलता है कि मैं ऐसा हूँ ! हमें इस अभिमानके सुखको भी छोड़ना है‒ऐसा विचार करो तो वह छूट जायगा । जैसे अपनी लड़कीका ब्याह करना है‒यह विचार रहनेसे अपने लड़केमें जितनी ममता होती है, उतनी अपनी लड़कीमें ममता नहीं होती । इसी तरह अभिमानके सुखको छोड़ना है‒यह पक्का विचार हो जायगा तो अभिमानजन्य सुखमें ममता नहीं रहेगी ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे
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