।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
पौष कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.–२०७०, शनिवार
मुक्ति स्वतःसिद्ध है


 (गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान्‌के वचन हमारे कल्याणके लिये हैंइसलिये उनके कहनेसे शुरू कर दो । भगवान्‌ने कहा कि सात्त्विक सुख आरम्भमें जहरकी तरह है और परिणाममें अमृतकी तरह हैयत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् (गीता १८ । ३७)। आरम्भमें जहरकी तरह हैयह बात पहले मेरी समझमें नहीं आयी । सात्त्विकतामें तो आरम्भमें ही आनन्द हैसुख है और भगवान् आरम्भमें जहरकी तरह कहते हैंयह कैसे ?विचार करनेपर समझमें आया कि राजस-तामस सुखका त्याग करनेमें कठिनता आती हैइसलिये सात्त्विक सुख पहले जहरकी तरह दीखता है । आप इस बातपर विचार करो कि दूसरोंको सुख कैसे हो । दूसरेकी बात कैसे रहे ? दूसरेका कल्याण कैसे हो भगवान् कहते हैं कि जिनकी प्राणिमात्रके हितमें प्रीति होती हैवे मेरेको प्राप्त होते हैंते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:’ (गीता १२ । ४) । जो हमें दुःख देते हैंउनको भी सुख कैसे हो ? उमा संत कइ इहई बड़ार्ड़ । मंद करत जो करइ भलाई ॥ (मानस ५ । ४१ । ४) । फिर सन्तपना आ जायगा ।

दूसरोंका हित करनेमें ही हमारा हित है । जैसेहम दर्पणमें अपना मुख देखते हैं तो अगर हमारा मुख पूर्वकी तरफ होगा तो दर्पणमें हमारा मुख पश्चिमकी तरफ होगा ।हमारा दायाँ उसमें बायाँ और हमारा बायाँ उसमें दायाँ दीखेगा । अब दर्पणमें जैसा दीखता हैउसके अनुसार हम चलेंगे तो उलटे चले जायँगे । संसाररूपी दर्पणमें सुख लेना अच्छा दीखता है और सुख देना बुरा दीखता है । अब उसीके अनुसार चलेंगे तो दशा बुरी होगीक्योंकि ज्ञान आरम्भमें ही उलटा हो गया  ! धुर बिगड़े सुधरे नहीं कोटिक करो उयाय । आरम्भमें ही काम बिगड़ गया !  दीखता ऐसा है कि हमारा स्वार्थ सिद्ध हो जायगाहमें सुख मिल जायगापर परिणाममें दुःख ही मिलेगा । इसलिये अगर अपना कल्याण चाहते हो तो इस चालको बदलना होगानहीं तो आफत-ही-आफत आयेगी । दूसरेको सुख देनेसे अपने सुख-भोगकी इच्छा मिटती हैयह बात एकदम सबके अनुभवकी है ।

श्रोतासेवा करनेसे तत्काल सुख तो नहीं मिलता,पर तत्काल अभिमान जरूर आता है  !

स्वामीजीअभिमानमें भी तो एक सुख मिलता है कि मैं ऐसा हूँ  ! हमें इस अभिमानके सुखको भी छोड़ना हैऐसा विचार करो तो वह छूट जायगा । जैसे अपनी लड़कीका ब्याह करना हैयह विचार रहनेसे अपने लड़केमें जितनी ममता होती हैउतनी अपनी लड़कीमें ममता नहीं होती । इसी तरह अभिमानके सुखको छोड़ना हैयह पक्का विचार हो जायगा तो अभिमानजन्य सुखमें ममता नहीं रहेगी ।

नारायण !    नारायण !!     नारायण !!!

‒‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे