।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
पौष कृष्ण पंचमी, वि.सं.–२०७०, रविवार
सबमें परमात्माका दर्शन


स्नान करते समय जब आप साबुन लगाकर रगड़ते होउस समय आपका स्वरूप कैसा दीखता है ? बुरा दीखता है । बुरा दीखनेपर भी मनमें ऐसा नहीं रहता कि मेरा स्वरूप बुरा है । मनमें यह रहता है कि यह रूप साबुनके कारण ऊपर-ऊपरसे ऐसा दीखता हैवास्तवमें ऐसा है नहीं । ऐसे ही कोई दुष्ट-से-दुष्ट व्यक्ति दीखे तो मनमें यह आना चाहिये कि यह ऊपर-ऊपरसे ऐसा दीखता हैभीतरसे तो यह परमात्माका अंश है । काले कपड़े पहननेसे क्या मनुष्य काला हो जाता है ? जैसा उसका स्वरूप हैवैसा ही रहता है । ऐसे ही दुष्टता और सज्जनता अन्तःकरणमें रहती है । परमात्माका जो अंश हैउसमें फरक नहीं पड़ता । एक जीवन्मुक्त हैभगवत्प्रेमी हैसिद्ध महापुरुष है और एक दुष्ट हैकसाई है जीवोंकी हत्या करता हैचोरी करता हैडाका डालता हैतो उन दोनोंमें परमात्मतत्त्व एक ही है । उस तत्त्वमें कोई फरक नहीं है । जो परमात्मतत्त्वको चाहता है,वह उस तत्त्वकी तरफ देखता है । व्यवहारमें यथायोग्य बर्ताव करते हुए भी साधककी दृष्टि उस तत्त्वकी तरफ ही रहनी चाहिये । उस तत्त्वकी तरफ दृष्टि रखनेवालेका नाम हीसमदर्शी है । व्यवहारमें समता लानेवालेसबके साथ खाना-पीनाब्याह आदि करनेवाले समवर्ती हैंसमदर्शी नहीं । समवर्ती नाम यमराजका हैसमवर्ती परेतराट् !’ (अमरकोष १ । १ । ५८); क्योंकि मौत सबकी समान होती है । अत: ज्ञानीका नाम है समदर्शी और यमराजका नाम हैसमवर्ती । ज्ञानी समदर्शी क्यों है कि वह सबमें समरूप परमात्माको देखता है । दुष्ट आदमीको देखकर अगर दुष्टताका भाव पैदा होता है तो वह समदर्शी नहीं हैपरमात्मतत्त्वका जिज्ञासु नहीं हैकम-से-कम उस समय तो नहीं है ।

एक स्थूल दृष्टान्त आता है । एक वैरागी बाबा थे । उनके पास सोनेकी बनी हुई एक गणेशजीकी और एक चूहेकी मूर्ति थी । बाबाजीको तीर्थोंमें जाना था । वे दोनों मूर्तियोंको सुनारके पास ले गये और कहा कि इनको ले लो और इनकी कीमत दे दोजिससे तीर्थ घूम आयें । दोनों मूर्तियोंका वजन बराबर थाइसलिये सुनारने दोनोंकी बराबर कीमत कर दी । बाबाजी चिढ़ गये कि जितनी कीमत गणेशजीकीउतनी ही कीमत चूहेकीऐसा कैसे हो सकता है  ! चूहा तो सवारी है और गणेशजी उसपर सवार होनेवाले हैंउसके मालिक हैं । सुनार बोला कि बाबाजी  ! हम गणेशजी और चूहेकी कीमत नहीं करतेहम तो सोनेकी कीमत करते हैं । सुनार मूर्तियोंको नहीं देखतावह तो सोनेको देखता है । ऐसे ही परमात्मतत्त्वको चाहनेवाला साधक प्राणियोंको न देखकर उनमें रहनेवाले परमात्मतत्त्वको देखता है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे