स्नान करते समय जब आप साबुन लगाकर रगड़ते हो, उस समय आपका स्वरूप कैसा दीखता है ? बुरा दीखता है । बुरा दीखनेपर भी मनमें ऐसा नहीं रहता कि मेरा स्वरूप बुरा है । मनमें यह रहता है कि यह रूप साबुनके कारण ऊपर-ऊपरसे ऐसा दीखता है, वास्तवमें ऐसा है नहीं । ऐसे ही कोई दुष्ट-से-दुष्ट व्यक्ति दीखे तो मनमें यह आना चाहिये कि यह ऊपर-ऊपरसे ऐसा दीखता है, भीतरसे तो यह परमात्माका अंश है । काले कपड़े पहननेसे क्या मनुष्य काला हो जाता है ? जैसा उसका स्वरूप है, वैसा ही रहता है । ऐसे ही दुष्टता और सज्जनता अन्तःकरणमें रहती है । परमात्माका जो अंश है, उसमें फरक नहीं पड़ता । एक जीवन्मुक्त है, भगवत्प्रेमी है, सिद्ध महापुरुष है और एक दुष्ट है, कसाई है जीवोंकी हत्या करता है, चोरी करता है, डाका डालता है, तो उन दोनोंमें परमात्मतत्त्व एक ही है । उस तत्त्वमें कोई फरक नहीं है । जो परमात्मतत्त्वको चाहता है,वह उस तत्त्वकी तरफ देखता है । व्यवहारमें यथायोग्य बर्ताव करते हुए भी साधककी दृष्टि उस तत्त्वकी तरफ ही रहनी चाहिये । उस तत्त्वकी तरफ दृष्टि रखनेवालेका नाम ही‘समदर्शी’ है । व्यवहारमें समता लानेवाले, सबके साथ खाना-पीना, ब्याह आदि करनेवाले ‘समवर्ती’ हैं, समदर्शी नहीं । ‘समवर्ती’ नाम यमराजका है‒‘समवर्ती परेतराट् !’ (अमरकोष १ । १ । ५८); क्योंकि मौत सबकी समान होती है । अत: ज्ञानीका नाम है ‒समदर्शी और यमराजका नाम है‒समवर्ती । ज्ञानी समदर्शी क्यों है ? कि वह सबमें समरूप परमात्माको देखता है । दुष्ट आदमीको देखकर अगर दुष्टताका भाव पैदा होता है तो वह समदर्शी नहीं है, परमात्मतत्त्वका जिज्ञासु नहीं है; कम-से-कम उस समय तो नहीं है ।
एक स्थूल दृष्टान्त आता है । एक वैरागी बाबा थे । उनके पास सोनेकी बनी हुई एक गणेशजीकी और एक चूहेकी मूर्ति थी । बाबाजीको तीर्थोंमें जाना था । वे दोनों मूर्तियोंको सुनारके पास ले गये और कहा कि इनको ले लो और इनकी कीमत दे दो, जिससे तीर्थ घूम आयें । दोनों मूर्तियोंका वजन बराबर था, इसलिये सुनारने दोनोंकी बराबर कीमत कर दी । बाबाजी चिढ़ गये कि जितनी कीमत गणेशजीकी, उतनी ही कीमत चूहेकी‒ऐसा कैसे हो सकता है ! चूहा तो सवारी है और गणेशजी उसपर सवार होनेवाले हैं, उसके मालिक हैं । सुनार बोला कि बाबाजी ! हम गणेशजी और चूहेकी कीमत नहीं करते, हम तो सोनेकी कीमत करते हैं । सुनार मूर्तियोंको नहीं देखता, वह तो सोनेको देखता है । ऐसे ही परमात्मतत्त्वको चाहनेवाला साधक प्राणियोंको न देखकर उनमें रहनेवाले परमात्मतत्त्वको देखता है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे
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