(गत ब्लॉगसे आगेका)
परमात्मा सबके भीतर हैं‒यह बहुत ऊँचे दर्जेकी चीज है । उतना न समझ सको तो इतना समझ लो कि ‘सब परमात्माके हैं ।’ यह सुगमतासे समझमें आ जायगा कि ये जितने प्राणी हैं, सब परमात्माके हैं । परमात्माके हैं तो ऐसे क्यों हो गये ? कि ज्यादा लाड़-प्यार करनेसे बालक बिगड़ जाता है । ये परमात्माके लाड़ले बालक हैं, इसलिये बिगड़ गये । बिगड़नेपर भी हैं तो परमात्माके ही ! अत: उनको परमात्माके समझकर ही उनके साथ यथायोग्य बर्ताव करना है । जैसे हमारा कोई प्यारा-से-प्यारा भाई हो और उसको प्लेग हो जाय तो प्लेगसे परहेज रखते हैं और भाईकी सेवा करते हैं । जिसकी सेवा करते हैं, वह तो प्रिय है, पर रोग अप्रिय है । इसलिये खान-पानमें परहेज रखते हैं । ऐसे ही किसीका स्वभाव बिगड जाय तो यह बीमारी आयी है,विकृति आयी है । उसके साथ व्यवहार करनेमें जो फरक दीखता है, वह केवल ऊपर-ऊपरका है । भीतरमें तो उसके प्रति हितैषिता होनी चाहिये ।
भगवान् सबके सुहद् हैं‒‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ (गीता ५ । २९) । ऐसे ही सन्तोंके लिये आया है कि वे सम्पूर्ण प्राणियोंके सुहृद् होते हैं‒‘सुहृद: सर्वदेहिनाम्’ (श्रीमद्भा॰ ३ । २५ । २१) । सुहृद् होनेका मतलब क्या ? कि दूसरा क्या करता है, कैसे करता है, हमारा कहना मानता है कि नहीं मानता, हमारे अनुकूल है कि प्रतिकूल‒इन बातोंको न देखकर यह भाव रखना कि अपनी तरफसे उसका हित कैसे हो ? उसकी सेवा कैसे हो ? हाँ, सेवा करनेके प्रकार अलग-अलग होते हैं । जैसे, कोई चोर है, डाकू है, उनकी मारपीट करना भी सेवा है । तात्पर्य है कि उनका सुधार हो जाय,उनका हित हो जाय, उनका उद्धार हो जाय । बच्चा जब कहना नहीं मानता तो क्या आप उसको थप्पड़ नहीं लगाते? उस समय क्या आपका उससे वैर होता है ? वास्तवमें आपका अधिक स्नेह होता है, तभी आप उसको थप्पड़ लगाते हैं । भगवान् भी ऐसा ही करते हैं । जैसे, बच्चे खेल रहे हैं और किसी माईका चित्त प्रसन्न हो जाय तो वह स्नेहवश सब बच्चोंको एक-एक लड्डू दे देती है । परन्तु वे उद्दण्डता करते हैं तो वह सबको थप्पड़ नहीं लगाती, केवल अपने बालकको ही लगाती है । ऐसे ही भगवान्का विधान हमारे प्रतिकूल हो तो वह उनके अधिक स्रेहका, अपनेपनका द्योतक है ।
दूसरेके साथ स्नेह रखते हुए बर्ताव तो यथायोग्य,अपने अधिकारके अनुसार करना चाहिये, पर दोष नहीं देखना चाहिये । किसीके दोष देखनेका हमारा अधिकार नहीं है । जैसे, नाटकमें एक मेघनाद बन गया और एक लक्ष्मण बन गया । दोनों एक ही कम्पनीके हैं । पर नाटकके समय कहते हैं‒अरे, तेरेको मार दूँगा । आ जा मेरे सामने खत्म कर दूँगा । वे शस्त्र-अस्त्र भी चलाते हैं । परन्तु भीतरसे उनमें वैर है क्या ? नाटकके बाद वे एक साथ रहते हैं, खाते-पीते हैं;क्यों ? उनके हृदयमें वैर है ही नहीं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे
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