।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष पूर्णिमा, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
सबमें परमात्माका दर्शन



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
परमात्मा सबके भीतर हैंयह बहुत ऊँचे दर्जेकी चीज है । उतना न समझ सको तो इतना समझ लो कि  सब परमात्माके हैं । यह सुगमतासे समझमें आ जायगा कि ये जितने प्राणी हैंसब परमात्माके हैं । परमात्माके हैं तो ऐसे क्यों हो गये कि ज्यादा लाड़-प्यार करनेसे बालक बिगड़ जाता है । ये परमात्माके लाड़ले बालक हैंइसलिये बिगड़ गये । बिगड़नेपर भी हैं तो परमात्माके ही ! अत: उनको परमात्माके समझकर ही उनके साथ यथायोग्य बर्ताव करना है । जैसे हमारा कोई प्यारा-से-प्यारा भाई हो और उसको प्लेग हो जाय तो प्लेगसे परहेज रखते हैं और भाईकी सेवा करते हैं । जिसकी सेवा करते हैंवह तो प्रिय हैपर रोग अप्रिय है । इसलिये खान-पानमें परहेज रखते हैं । ऐसे ही किसीका स्वभाव बिगड जाय तो यह बीमारी आयी है,विकृति आयी है । उसके साथ व्यवहार करनेमें जो फरक दीखता हैवह केवल ऊपर-ऊपरका है । भीतरमें तो उसके प्रति हितैषिता होनी चाहिये ।

भगवान् सबके सुहद् हैंसुहृदं सर्वभूतानाम् (गीता ५ । २९) । ऐसे ही सन्तोंके लिये आया है कि वे सम्पूर्ण प्राणियोंके सुहृद् होते हैंसुहृद: सर्वदेहिनाम् (श्रीमद्भा॰ ३ । २५ । २१) । सुहृद् होनेका मतलब क्या कि दूसरा क्या करता हैकैसे करता हैहमारा कहना मानता है कि नहीं मानताहमारे अनुकूल है कि प्रतिकूलइन बातोंको न देखकर यह भाव रखना कि अपनी तरफसे उसका हित कैसे हो उसकी सेवा कैसे हो हाँसेवा करनेके प्रकार अलग-अलग होते हैं । जैसेकोई चोर हैडाकू हैउनकी मारपीट करना भी सेवा है । तात्पर्य है कि उनका सुधार हो जाय,उनका हित हो जायउनका उद्धार हो जाय । बच्चा जब कहना नहीं मानता तो क्या आप उसको थप्पड़ नहीं लगातेउस समय क्या आपका उससे वैर होता है वास्तवमें आपका अधिक स्नेह होता है, तभी आप उसको थप्पड़ लगाते हैं । भगवान् भी ऐसा ही करते हैं । जैसेबच्चे खेल रहे हैं और किसी माईका चित्त प्रसन्न हो जाय तो वह स्नेहवश सब बच्चोंको एक-एक लड्‌डू दे देती है । परन्तु वे उद्दण्डता करते हैं तो वह सबको थप्पड़ नहीं लगातीकेवल अपने बालकको ही लगाती है । ऐसे ही भगवान्‌का विधान हमारे प्रतिकूल हो तो वह उनके अधिक स्रेहकाअपनेपनका द्योतक है ।

दूसरेके साथ स्नेह रखते हुए बर्ताव तो यथायोग्य,अपने अधिकारके अनुसार करना चाहियेपर दोष नहीं देखना चाहिये । किसीके दोष देखनेका हमारा अधिकार नहीं है । जैसेनाटकमें एक मेघनाद बन गया और एक लक्ष्मण बन गया । दोनों एक ही कम्पनीके हैं । पर नाटकके समय कहते हैंअरेतेरेको मार दूँगा । आ जा मेरे सामने खत्म कर दूँगा । वे शस्त्र-अस्त्र भी चलाते हैं । परन्तु भीतरसे उनमें वैर है क्या नाटकके बाद वे एक साथ रहते हैं, खाते-पीते हैं;क्यों उनके हृदयमें वैर है ही नहीं ।

 (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे