(गत ब्लॉगसे आगेका)
सन्तोंके लिये कहा गया है‒
संतों की गति रामदास, जग से लखी न जाय ।
बाहर तो संसार-सा, भीतर उल्टा थाय ॥
बाहरसे वे संसारका बर्ताव करते हैं, पर भीतरसे परमात्मतत्त्वको देखते हैं । भीतरसे उनका किसीके साथ द्वेष नहीं होता और सबके साथ मैत्री तथा करुणाका भाव होता है‒‘अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च’ (गीता १२ । १३) । हृदयसे वे सबका हित चाहते हैं । अब प्रश्न यह है कि हमारी दृष्टि सम कैसे हो ? एक तो आपमें यह बात दृढ़तासे रहे कि ‘मैं तो साधक हूँ, परमात्मतत्त्वका जिज्ञासु हूँ’ और एक यह बात दृढ़ रहे कि ‘सबमें परमात्मा हैं ।’ सबमें परमात्माको कैसे देखें ? इस बातको थोड़ा ध्यानसे सुनें ।‘मनुष्य है’‒इसमें जो ‘है’‒पना है, सत्ता है, वह कभी मिटती नहीं । वह बुरा हो या भला हो, दुराचारी हो या सदाचारी हो, उसमें जो ‘है’‒पना है, वह मिटेगा क्या ? बढिया-से-बढिया चीजोंमें भी वह ‘है’‒पना है और कूड़ा-करकट आदिमें भी वह ‘है’‒पना है । उन चीजोंका रूप बदल जाता है, पर‘है’‒पना (सत्ता) नहीं बदलता । कूड़ा-करकटको जला दो तो वह राख बन जायगा, उसका रूप दूसरा हो जायगा । पर उसकी सत्ता दूसरी नहीं हो जायगी । वह सत्ता परमात्माकी है । उस सत्ताकी तरफ दृष्टि रखो । जो परिवर्तन होता है, वह प्रकृतिमें होता है । आपको संक्षेपसे प्रकृतिका स्वरूप बतायें तो एक वस्तु और एक क्रिया‒ये दो प्रकृति हैं । वस्तु भी बदलती रहती है और क्रिया भी बदलती रहती है । यह बदलना प्रकृतिका है । आप प्रकृतिके जिज्ञासु नहीं हैं,परमात्माके जिज्ञासु हैं । अत: बदलनेवालेको न देखकर रहनेवाले ‘है’‒पनको देखो । संसार है, मनुष्य है, पशु है,पक्षी है; यह जीवित है, यह मुर्दा है‒इसमें तो फरक है, पर‘है’ में क्या फरक पड़ा ? नफा हो गया, नुकसान हो गया;पोतेका जन्म हुआ, बेटा मर गया तो नफा-नुकसानमें,जन्मने-मरनेमें फरक है, पर दोनोंके ज्ञानमें क्या फरक पड़ा? न उस वस्तुकी सत्तामें फरक पड़ा और न आपके ज्ञानमें फरक पड़ा ।
व्यवहार तो स्वाँगके अनुसार ही होगा । हम साधु हैं तो साधुकी तरह स्वाँग करेंगे । गृहस्थ हैं तो गृहस्थकी तरह स्वाँग करेंगे । सामने जो व्यक्ति है, परिस्थिति है, उसको लेकर बर्ताव करना है । परन्तु भीतरसे, सिद्धान्तसे यह रहे कि सबमें एक परमात्मतत्त्वकी सत्ता है । सत्यरूपसे, ज्ञान-रूपसे और आनन्दरूपसे सबमें परमात्मा ही परिपूर्ण है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे
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