।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
पौष कृष्ण नवमी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
मन-बुद्धि अपने नहीं



अपने स्वरूपमें स्थित होनेकी बात जहाँ आती है,वहाँ हम उन्हीं मन और बुद्धिसे स्थित होना चाहते हैंजिनमें संसारके संस्कार पड़े हैं । वे मन और बुद्धि संसारकी तरफ ही दौड़ते हैं । हमारे पास मन और बुद्धि लगानेके अलावा कोई उपाय है नहीं । ऐसी स्थितिमें हम मन-बुद्धिसे कैसे अलग हों?

हम मन-बुद्धिको परमात्मामें लगाते हैं तो वे संसारकी तरफ जाते हैं । इसमें मुख्य बात यह है कि हमारे भीतरमें संसारका महत्त्व जँचा हुआ है । उत्पत्ति-विनाशशीलका जो महत्त्व अन्तःकरणमें बैठा हुआ हैउसको हमने बहुत ज्यादा आदर दे दिया हैयह बाधा हुई है । इस बाधाको विचारके द्वारा निकाल दो तो यह ज्ञानयोग हो जायगा । इससे पिण्ड छुड़ानेके लिये भगवान्‌की शरण लेकर पुकारो तो यहभक्तियोग’ हो जायगा । जितनी वस्तु अपने पास हैउसको व्यक्तिगत न मानकर दूसरोंकी सेवामें लगाओ और कर्तव्य-कर्म करो तो अपने लिये न करके केवल दूसरोंके हितके लिये करो तो यह कर्मयोग’ हो जायगा । इन तीनोंमें जो आपको सुगम दीखेवह शुरू कर दो । वस्तुओंको व्यक्तियोंकी सेवामें लगाओ । समाधि भी सेवामें लगा दो । अपने शरीरको,मनकोबुद्धिको सेवामें लगा दो । केवल दूसरोंको सुख पहुँचाना है और स्वयं बिलकुल अचाह होना है । जड़की कोई भी चाह रखोगे तो बन्धन रहेगाइसमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं है । यह बात खास जँच जानी चाहिये कि संसारकी कोई भी चाह रखोगे तो दुःखसेबन्धनसे कभी बच नहीं सकतेक्योंकि दूसरोंकी चाहना रखेंगेदूसरोंसे सुख चाहेंगे तो पराधीन होना ही पड़ेगा और ‘पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं (मानस १ । १०२ । ३) । कुछ भी चाह मत रखो तो दुःख मिट जायगा ।

बुद्धि संसारमें जाती है तो उसको जाने दो । बुद्धि आपकी है कि आप बुद्धिके हो ? स्वयं विचार करोसुन करके नहीं । आपकी बुद्धि संसारमें जाती है तो आप बुद्धिमें अपनापन मत रखो । बुद्धि तो आपकी वृत्ति है । उसको चाहे जहाँ नहीं लगा सको तो उससे विमुख हो जाओ कि मैं बुद्धिका द्रष्टा हूँबुद्धिसे बिलकुल अलग हूँ । स्वयं बुद्धिको जाननेवाला है । बुद्धि एक करण है और परमात्मतत्त्व करण-निरपेक्ष है । पढ़ाईके समय भी मेरी यह खोज रही है कि जीवका कल्याण कैसे हो मेरेको जब यह बात मिली कि परमात्मतत्त्व करण-निरपेक्ष हैतब मुझे बड़ा लाभ हुआ,बड़ी प्रसन्नता हुई । आप इस बातपर आरम्भमें ही ध्यान दो तो बड़ा अच्छा रहे  ! तत्त्व वृत्तिके कब्जेमें नहीं आयेगा । प्रकृतिकी वृत्ति प्रकृतिसे अतीत तत्त्वको कैसे पकड़ेगी अत: यह विचार आप पक्का कर लो कि तत्त्वकी प्राप्ति करण-निरपेक्ष हैकरण-सापेक्ष नहीं है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे