।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
पौष कृष्ण दशमी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
एकादशी-व्रत कल है
मन-बुद्धि अपने नहीं



 (शेष आगेके ब्लॉगमें)
करण-निरपेक्षको हम कैसे मानें करणकी तरफसे आप चुप हो जाओ । करणको न अच्छा समझोन मन्दा समझो । यदि करणको कर्ता ग्रहण नहीं करे तो कर्ता करणसे स्वत: अलग है । करणसे अपनेको अलग अनुभव करके चुप हो जाओ । अगर हो सके तो सेकेण्डदो सेकेण्ड चुप हो जाओचिन्तन कुछ भी मत करोआत्मसंस्थ मन: कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् (गीता ६ । २५) । कुछ भी चिन्तन नहीं करोगे तो आपकी स्थिति स्वरूपमें होगी । यह बहुत ही बढ़िया साधन है ।

हम कुछ भी चिन्तन नहीं करतेपर चिन्तन हो जाता है तो क्या करें इस विषयमें एक बात विशेष ध्यान देनेकी है कि जब कोई चिन्तन आता हैतब साधक उसको हटाता है । साधन करनेवालोंका प्राय: यही उद्योग रहता है कि दूसरी बात याद आये तो उसको हटाओ और परमेश्वरमें लगाओ ।इस उद्योगसे जल्दी सिद्धि नहीं होतीसाधक जल्दी सफल नहीं होता । सफलताकी कुंजी यह है कि उस चिन्तनकी उपेक्षा कर दो । कोई ऊँची या नीची वृत्ति आये तो उसको महत्त्व मत दो । वृत्तिको न हटाओ और न लगाओ । हटाओ तो वृत्तिको महत्त्व दिया और लगाओ तो वृत्तिको महत्व दिया । वृत्तिको महत्त्व देनेसे जड़ताका महत्त्व आयेगास्वरूपका महत्त्व नहीं रहेगा । यह मार्मिक बात है । आपकी दृष्टि इधर हो जायइसलिये कहता हूँ कि यह बात मेरेको बहुत प्रिय लगी हैबहुत उत्तम लगी है । इससे बहुत लाभ होता है ।

मन-बुद्धिकी उपेक्षा करो । उसमें अच्छा-मन्दा कुछ भी आयेकुछ भी चिन्तन मत करो । जो चिन्तन आ जाय,उसकी उपेक्षा कर दो । उसके साथ विरोध मत करोउसको हटाओ मतपकड़ो मत । यदि यह उपेक्षा करनेकी अटकल आ जाय तो बहुत लाभ होगा । चिन्तनसे उदासीन हो जाओ । न उसको भला समझोन उसको बुरा समझो । भला समझनेसे भी सम्बन्ध जुड़ता है और बुरा समझनेसे भी सम्बन्ध जुड़ता है । जिन्होंने भगवान्‌से प्रेम कियाउनका भी उद्धार हुआ और जिन्होंने भगवान्‌से वैर कियाउनका भी उद्धार हुआ । परन्तु जिन्होंने कुछ भी नहीं कियाउनका उद्धार नहीं हुआ । अत: संसारसे प्रेम करोगे तो फँसोगेवैर करोगे तो फँसोगेक्योंकि प्रेम या वैर करनेसे संसारका सम्बन्ध हो जायगा । संसारका सम्बन्ध तोड़ना ज्ञानयोगकी खास बात है ।

विवेक सत्-असत्‌का निर्णय करता है । अत: विवेकको महत्त्व देकर असत्‌की उपेक्षा कर दो । वृत्तियाँ पैदा होती हैं और नष्ट होती हैंइस कारण ये असत् हैं । जिसका उत्पत्ति-विनाश होता है तथा जिसका आरम्भ और अन्त होता हैवह असत् है । जो असत् हैवह अपने-आप मिटता हैअत: उसको मिटानेका उद्योग करना बिलकुल निरर्थक है । जो उत्पन्न हुआ हैउसका खास काम मिटना ही है । लड़का पैदा हुआ तो उसका आवश्यक काम क्या है आवश्यक काम हैमरना ! वह बड़ा होगा कि नहींउसका ब्याह होगा कि नहीं,उसके बेटा-बेटी होंगे कि नहींइसमें सन्देह हैपर वह मरेगा कि नहींइसमें सन्देह नहीं है । अत: उसका खास काम मरना ही है । इसी तरह वृत्ति पैदा हुई तो उसका खास काम नष्ट होना ही है । इसलिये उसको नष्ट करनेके लिये उद्योग करना,बल लगानाबुद्धि लगानासमय लगाना बिलकुल मूर्खता है और उसको रखनेकी चेष्टा करना भी मूर्खता है । जो चीज रहेगी ही नहींउसको रखनेकी इच्छा करना ही तो महान् दुःख है । परन्तु हमारे भाई चेतते ही नहींक्या करें ! न तो रखनेकी इच्छा करनी है और न हटानेकी इच्छा करनी है;किन्तु अपने कर्तव्यका पालन करना हैजिससे सबको सुख होआराम हो । जो अपने-आप मिट जायगीरहेगी नहीं,उसकी उपेक्षा कर दोदेखो निरपख होय तमाशा । यह बहुत लाभकी चीज है । अत: बुद्धिसे तटस्थ हो जाओ कि हमें मतलब नहीं इससे । तटस्थ हुआ नहीं जाताऐसा मत मानो । अभी ऐसा दीखता है कि इससे हम अलग नहीं हो सकते,पर ऐसी बात है नहीं । इसके लिये युक्ति बतायी कि आप बुद्धिके हो या बुद्धि आपकी है । यह मामूली बात नहीं है,बहुत ही कामकी बात है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे