।। श्रीहरिः ।।

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आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
मूर्ति-पूजा
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
जो परीक्षामें पास होना चाहते हैं, वे ही परीक्षकको आदर देते हैं, परीक्षकके अधीन होते हैं; क्योंकि परीक्षक जिसको पास कर देता है, वह पास हो जाता है और जिसको फेल कर देता है वह फेल हो जाता है । परन्तु भगवान्‌को किसीकी परीक्षामें पास होनेकी जरूरत ही नहीं है; क्योंकि परीक्षामें पास होनेसे भगवान्‌का महत्व बढ़ नहीं जाता और परीक्षामें फेल होनेसे भगवान्‌का महत्त्व घट नहीं जाता । जैसे, रावण भगवान् रामकी परीक्षा लेनेके लिये मारीचको मायामय स्वर्णमृग बनाकर भेजता है तो भगवान् स्वर्णमृगके पीछे दौड़ते हैं अर्थात् रावणकी परीक्षामें फेल हो जाते हैं; क्योंकि भगवान्‌को पास होकर दुष्ट रावणसे कौन-सा सर्टिफिकेट लेना था ! ऐसे ही दुष्टलोग भगवान्‌की परीक्षा लेनेके लिये मन्दिरोंको तोड़ते हैं तो भगवान् उनकी परीक्षामें फेल हो जाते हैं, उनके सामने अपना प्रभाव प्रकट नहीं करते, क्योंकि वे दुष्टभावसे ही भगवान्‌के सामने आते हैं ।
 
एक वस्तुगुण होता है और एक भावगुण होता है । ये दोनों गुण अलग अलग हैं । जैसे, पत्नी, माता और बहन‒इन तीनोंका शरीर एक ही है अर्थात् जैसा पत्नीका शरीर है, वैसा ही माता और बहनका शरीर है, अत: तीनोंमें ‘वस्तुगुण’ एक ही हुआ । परन्तु पत्नीसे मिलनेपर और भाव रहता है, मातासे मिलनेपर और भाव रहता है तथा बहनसे मिलनेपर और ही भाव रहता है; अत: वस्तु एक होनेपर भी ‘भावगुण’ अलग-अलग हुआ । संसारमें भिन्न-भिन्न स्वभावके व्यक्ति, वस्तु आदि हैं; अत: उनमें वस्तुगुण तो अलग-अलग है, पर सबमें भगवान् परिपूर्ण हैं‒यह भावगुण एक ही है । ऐसे ही जिसकी मूर्तिपर श्रद्धा है, उसमें ‘मूर्तिमें भगवान् हैं’‒ऐसा भावगुण रहता है । परन्तु जिसकी मूर्तिपर श्रद्धा नहीं है, उसमें ‘मूर्ति पत्थर, पीतल, चाँदी आदिकी है’‒ऐसा वस्तुगुण रहता है । तात्पर्य है कि अगर मूर्तिमें पूजकका भाव भगवान्‌का है तो उसके लिये वह साक्षात् भगवान् ही है । अगर पूजकका भाव पत्थर, पीतल, चाँदी आदिकी मूर्तिका है तो उसके लिये वह साक्षात् पत्थर आदिकी मूर्ति ही है; क्योंकि भावमें ही भगवान् हैं‒
न काष्ठे विद्यते देवो  न  शिलाया न मृत्सु च ।
भावे हि विद्यते देवस्तस्माद् भावै समाचरेत् ॥
                                                                                   (गरुड उत्तर २०।११)
‘देवता न तो काठमें रहते हैं, न पत्थरमें और न मिट्टीमें ही रहते हैं । भावमें ही देवताका निवास है, इसलिये भावको ही मुख्य मानना चाहिये ।’
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मूर्ति-पूजा और नाम-जपकी महिमा’ पुस्तकसे
 
एकतामें अनेकता और अनेकतामें एकता हिन्दूधर्मकी विशेषता है ।
         असत्यका आश्रय लेनेवाला व्यक्ति हमारा नुकसान नहीं कर सकता ।
‒ ‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे