।। श्रीहरिः ।।

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आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
मूर्ति-पूजा
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
एक वैरागी बाबा थे । उनके पास सोनेकी दो मूर्तियाँ थीं‒एक गणेशजीकी और एक चूहेकी । दोनों मूर्तियाँ तौलमें बराबर थीं । बाबाको रामेश्वर जाना था । अत: उन्होंने सुनारके पास जाकर कहा कि भैया ! इन मूर्तियोंके बदले कितने रुपये दोगे ? सुनारने दोनों मूर्तियोंको तौलकर दोनोंके पाँच-पाँच सौ रुपये बताये अर्थात् दोनोंकी बराबर कीमत बतायी । बाबा बोले‒अरे ! तू देखता नहीं, एक मालिक है और एक उनकी सवारी है । जितना मूल्य मालिक-(गणेशजी-)का, उतना ही मूल्य सवारी-(चूहे-)का‒यह कैसे हो सकता है ? सुनार बोला‒बाबा ! मैं गणेशजी और चूहेका मूल्य नहीं लगाता, मैं तो सोनेका मूल्य लगाता हूँ । तात्पर्य है कि बाबाकी दृष्टि गणेशजी और चूहेपर है और सुनारकी दृष्टि सोनेपर है अर्थात् बाबाको भावगुण दीखता है और सुनारको वस्तुगुण दीखता है । ऐसे ही जो मूर्तियोंको तोड़ते हैं, उनको वस्तुगुण ही दीखता है अर्थात् उनको पत्थर, पीतल आदि ही दीखता है । अत: भगवान् उनकी भावनाके अनुसार पत्थर आदिके रूपसे ही बने रहते हैं ।
 
वास्तवमें देखा जाय तो स्थावर-जंगम आदि सब कुछ भगवत्स्वरूप ही है । जिनमें भावगुण अर्थात् भगवान्‌की भावना है, उनको सब कुछ भगवत्स्वरूप ही दीखता है; परंतु जिनमें वस्तुगुण अर्थात् संसारकी भावना है, उनको स्थावर-जंगम आदि सब कुछ अलग-अलग ही दीखता है । यही बात मूर्तिके विषयमें भी समझ लेनी चाहिये ।
 
लोग श्रद्धाभावसे मूर्तिकी पूजा करते हैं, स्तुति एवं प्रार्थना करते हैं; क्योंकि उनको तो मूर्तिमें विशेषता दीखती है । जो मूर्तिको तोड़ते हैं, उनको भी मूर्तिमें विशेषता दीखती है । अगर विशेषता नहीं दीखती तो वे मूर्तिको ही क्यों तोड़ते हैं ? दूसरे पत्थरोंको क्यों नहीं तोड़ते ? अत: वे भी मूर्तिमें विशेषता मानते हैं । केवल मूर्तिमें श्रद्धा-विश्वास रखनेवालोंके साथ द्वेष-भाव होनेसे, उनको दुःख देनेके लिये ही वे मूर्तिको तोड़ते हैं ।
 
जो लोग शास्त्र-मर्यादाके अनुसार बने हुए मन्दिरको, उसमें प्राणप्रतिष्ठा करके रखी गयी मूर्तियोंको तोड़ते हैं, वे तो अपना स्वार्थ सिद्ध करने, हिंदुओंकी मर्यादाओंको भंग करने, अपने अहंकार एवं नामको स्थायी करने, भग्नावशेष मूर्तियोंको देखकर पीढ़ियोतक हिन्दुओंके हृदयमें जलन पैदा करनेके लिये द्वेषभावसे मूर्तियोंको तोड़ते हैं । ऐसे लोगोंकी बड़ी भयानक दुर्गति होती है, वे घोर नरकोंमें जाते हैं; क्योंकि उनकी नीयत ही दूसरोंको दुःख देने, दूसरोंका नाश करनेकी है । खराब नीयतका नतीजा भी खराब ही होता है । परन्तु जो लोग मन्दिरोंकी, मूर्तियोंकी रक्षा करनेके लिये अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं, अपने प्राणोंको लगा देते हैं, उनकी नीयत अच्छी होनेसे उनकी सद्‌गति ही होती है ।
 
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मूर्ति-पूजा और नाम-जपकी महिमा’ पुस्तकसे