।। श्रीहरिः ।।
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आजकी शुभ तिथि–
पौष कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.–२०७०, बुधवार
मुक्ति स्वतःसिद्ध है
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
अब एक प्रश्न है कि मुक्ति होनेसे जीवोंका जन्म-मरण मिट जायगा तो संसार ही मिट जायगा ! क्योंकि जितने जीवोंकी मुक्ति होगी, उतने जीव संसारमें कम हो जायेंगे और इस प्रकार कम होते-होते सर्वथा मिट जायेंगे । इसलिये मुक्ति होनेके बाद फिर जन्म नहीं होतायह बात नहीं है । जीव महाप्रलयतक जन्म नहीं लेते; पर महासर्गमें पुन: जन्म ले लेते हैंऐसा लोगोंने सिद्धान्त बना लिया है । इसका कारण क्या है ? कि उन्होंने ऐसा मान रखा है कि मुक्ति कृत्रिम है, हमारे करनेसे होती है, इसलिये सदा कैसे रह सकती है ? परन्तु वास्तवमें मुक्ति स्वतःसिद्ध है, स्वाभाविक है, कृत्रिम नहीं है । करना अस्वाभाविक है । अस्वाभाविकताको मिटा दोगे तो स्वाभाविकता ज्यों-की-त्यों रह जायगी । इस विषयको गहरे उतरकर समझो । आप थोड़ा विचार करो कि जिन रुपयोंको आपने अपना मान रखा है, उन्हीं रुपयोंकी चिन्ता आपको होती है । रुपये तो दुनियामें अनगिनतीके पड़े हैं, पर उनकी चिन्ता आपको नहीं होती । अत: चिन्ता होनेमें रुपया कारण नहीं है, अपनापन कारण है । जिन व्यक्तियोंको आपने अपना मान लिया है, उनको लाभ होता है तो आपको सुख होता है और उनको हानि होती है तो आपको दुःख होता है । परन्तु जिनसे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है, उनको लाभ हो या हानि, वे मर जायँ या रह जायँ, हमें कोई सुख-दुःख नहीं होता । जिनसे ममता कर रखी है, उनका ही बन्धन है । जिनमें ममता नहीं है, उनका बन्धन हमारेको नहीं है । विचार करके आप देखें तो ममताका त्याग बहुत सुगम है । जिसको हमने मेरा है मान रखा है, उसको मेरा नहीं है माननेमें हम स्वतन्त्र हैं, पराधीन नहीं हैं । परन्तु उससे सुख लेना चाहते हैं, इसलिये पराधीन बन जाते हैं । संयोगजन्य सुखमें फँसोगे तो पराधीनतासे बच नहीं सकोगे । भगवान् साफ कहते हैं
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध: ॥
                                     (गीता ५ । २२)
 
सम्बन्धजन्य जो सुख हैं, वे दुःखोंके ही कारण हैं और आदि-अन्तवाले हैं, इसलिये विवेकी पुरुष उनमें रमण नहीं करता । जो उनमें रमण नहीं करता, उसका कल्याण हो जाता है ।
 
संयोगजन्य सुखकी लोलुपता ही संसारमें बाँधनेवाली चीज है । मैंने पहले भी कहा था, आज भी कह दूँ । मैंने पढ़ाई की, सत्संग किया, व्याख्यान दिये, इतनेपर भी मेरा समाधान नहीं हुआ कि बात क्या है ? यह बन्धन कहाँ है ? फिर संतोंकी कृपासे यह बात मेरी समझमें आयी कि जो सम्बन्धजन्य सुखकी इच्छा है, यही मूल बन्धन है । सुखकी इच्छा समाधितक रहती है । यह सुखकी इच्छा ही बाँधनेवाली है । इस बातपर आप पूरा विश्वास करो ।
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे