(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
अब
एक प्रश्न है कि
मुक्ति होनेसे
जीवोंका जन्म-मरण
मिट जायगा तो संसार
ही मिट जायगा ! क्योंकि
जितने जीवोंकी
मुक्ति होगी,
उतने जीव संसारमें
कम हो जायेंगे
और इस प्रकार कम
होते-होते सर्वथा
मिट जायेंगे ।
इसलिये मुक्ति
होनेके बाद फिर
जन्म नहीं होता‒यह बात नहीं
है । जीव महाप्रलयतक
जन्म नहीं लेते;
पर महासर्गमें
पुन: जन्म ले लेते
हैं‒ऐसा लोगोंने
सिद्धान्त बना
लिया है । इसका
कारण क्या है ?
कि
उन्होंने
ऐसा मान रखा
है कि मुक्ति
कृत्रिम है,
हमारे
करनेसे होती
है, इसलिये
सदा कैसे रह
सकती है ? परन्तु
वास्तवमें
मुक्ति
स्वतःसिद्ध
है, स्वाभाविक
है, कृत्रिम
नहीं है ।
करना
अस्वाभाविक
है । अस्वाभाविकताको
मिटा दोगे तो
स्वाभाविकता
ज्यों-की-त्यों रह
जायगी । इस
विषयको गहरे
उतरकर समझो । आप
थोड़ा विचार करो
कि जिन रुपयोंको
आपने अपना मान
रखा है, उन्हीं रुपयोंकी
चिन्ता आपको होती
है । रुपये तो दुनियामें
अनगिनतीके पड़े
हैं, पर उनकी चिन्ता
आपको नहीं होती
। अत: चिन्ता होनेमें
रुपया कारण नहीं
है, अपनापन
कारण है । जिन व्यक्तियोंको
आपने अपना मान
लिया है, उनको लाभ होता
है तो आपको सुख
होता है और उनको
हानि होती है तो
आपको दुःख होता
है । परन्तु
जिनसे हमारा
कोई सम्बन्ध
नहीं है, उनको लाभ
हो या हानि,
वे मर
जायँ या रह
जायँ, हमें कोई सुख-दुःख
नहीं होता । जिनसे
ममता कर रखी
है, उनका ही
बन्धन है ।
जिनमें ममता
नहीं है, उनका
बन्धन
हमारेको
नहीं है । विचार
करके आप
देखें तो
ममताका
त्याग बहुत
सुगम है ।
जिसको हमने ‘मेरा है’ मान
रखा है, उसको ‘मेरा
नहीं है’ माननेमें
हम
स्वतन्त्र
हैं, पराधीन
नहीं हैं ।
परन्तु उससे
सुख लेना
चाहते हैं,
इसलिये
पराधीन बन
जाते हैं ।
संयोगजन्य
सुखमें
फँसोगे तो
पराधीनतासे
बच नहीं
सकोगे । भगवान्
साफ कहते हैं‒
ये हि संस्पर्शजा
भोगा दुःखयोनय
एव ते ।
आद्यन्तवन्त:
कौन्तेय न तेषु रमते
बुध: ॥
(गीता ५ । २२)
सम्बन्धजन्य
जो सुख हैं,
वे दुःखोंके
ही कारण हैं और
आदि-अन्तवाले
हैं, इसलिये विवेकी
पुरुष उनमें रमण
नहीं करता । जो
उनमें रमण नहीं
करता, उसका कल्याण
हो जाता है ।
संयोगजन्य
सुखकी लोलुपता
ही संसारमें बाँधनेवाली
चीज है । मैंने
पहले भी कहा था,
आज भी कह दूँ
। मैंने पढ़ाई की,
सत्संग किया,
व्याख्यान
दिये, इतनेपर भी
मेरा समाधान नहीं
हुआ कि बात क्या
है ? यह
बन्धन कहाँ है
?
फिर संतोंकी
कृपासे यह
बात मेरी
समझमें आयी
कि जो सम्बन्धजन्य
सुखकी इच्छा
है, यही मूल
बन्धन है । सुखकी
इच्छा
समाधितक
रहती है । यह
सुखकी इच्छा
ही
बाँधनेवाली
है । इस बातपर
आप पूरा
विश्वास करो
।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्तिकी
सुगमता’
पुस्तकसे
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