।। श्रीहरिः ।।

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आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी, वि.सं.–२०७०, रविवार
श्रीस्कन्दषष्ठीव्रत
मूर्ति-पूजा
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
जो कोई भी आस्तिक पुरुष होता है, वह भले ही मूर्तिपूजासे परहेज रखे, पर उसके द्वारा मूर्तिपूजा होती ही है । कैसे ? वह वेद आदि ग्रन्थोंको मानता है, उनके अनुसार चलता है तो यह मूर्तिपूजा ही है; क्योंकि वेद भी तो (लिखी हुई पुस्तक होनेसे) मूर्ति ही है । वेद आदिका आदर करना मूर्तिपूजा ही है । ऐसे ही मनुष्य गुरुका, माता-पिताका, अतिथिका आदर-सत्कार करता है, अन्न-जल-वस्त्र आदिसे उनकी सेवा करता है तो यह सब मूर्तिपूजा ही है । कारण कि गुरु, माता-पिता आदिके शरीर तो जड़ हैं, पर शरीरका आदर करनेसे उनका भी आदर होता है, जिससे वे प्रसन्न होते हैं । तात्पर्य है कि मनुष्य कहीं भी, जिस-किसीका, जिस- किसी रूपसे आदर-सत्कार करता है, वह सब मूर्तिपूजा ही है । अगर मनुष्य भावसे मूर्तिमें भगवान्‌का पूजन करता है तो वह भगवान्‌का ही पूजन होता है ।
 
एक वैरागी बाबा थे । वे एक छातेके नीचे रहते थे और वहीं शालग्रामका पूजन किया करते थे । जो लोग मूर्तिपूजाको नहीं मानते थे, उनको बाबाजीकी यह किया (मूर्तिपूजा) बुरी लगती थी । उन दिनों वहाँ हुक साहब नामक एक अंग्रेज अफसर आया हुआ था । उस अफसरके सामने उन लोगोंने बाबाजीकी शिकायत कर दी कि यह मूर्तिकी पूजा करके सर्वव्यापक परमात्माका तिरस्कार करता है आदि-आदि । हुक साहबने कुपित होकर बाबाजीको बुलाया और उनको वहाँसे चले जानेका हुक्म दे दिया । दूसरे दिन बाबाजीने हुक साहबका एक पुतला बनाया और उसको लेकर वे शहरमें घूमने लगे । वे लोगोंको दिखा-दिखाकर उस पुतलेको जूता मारते और कहते कि यह हुक साहब बिलकुल बेअक्ल है, इसमें कुछ भी समझ नहीं है आदि-आदि । लोगोंने पुन: हुक साहबसे शिकायत कर दी कि यह बाबा आपका तिरस्कार करता है, आपका पुतला बनाकर उसको जूता मारता है । हुक साहबने बाबाजीको बुलाकर पूछा कि तुम मेरा अपमान क्यों करते हो ? बाबाजीने कहा कि मैं आपका बिलकुल अपमान नहीं करता, मैं तो आपके इस पुतलेका अपमान करता हूँ; क्योंकि यह बड़ा ही मूर्ख है । ऐसा कहकर बाबाजीने पुतलेको जूता मारा । हुक साहब बोले कि मेरे पुतलेका अपमान करना मेरा ही अपमान करना है । बाबाजीने कहा कि आप इस पुतलेमें अर्थात् मूर्तिमें हैं ही नहीं, फिर भी केवल नाममात्रसे आपपर इतना असर पड़ता है । हमारे भगवान् तो सब देश, काल, वस्तु आदिमें हैं; अत: जो श्रद्धापूर्वक मूर्तिमें भगवान्‌का पूजन करता है, उससे क्या भगवान् प्रसन्न नहीं होंगे ? मैं मूर्तिमें भगवान्‌का पूजन करता हूँ तो यह भगवान्‌का आदर हुआ या निरादर ? हुक साहब बोले कि जाओ, अब तुम स्वतन्त्रतापूर्वक मूर्तिपूजा कर सकते हो । बाबाजी अपने स्थानपर चले गये ।
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मूर्ति-पूजा और नाम-जपकी महिमा’ पुस्तकसे