(गत ब्लॉगसे आगेका)
जैसे शरीर नीरोग होता है तो भूख लगती है । भूख लगनेपर रूखी रोटी भी बड़ी अच्छी लगती है और बल देनेवाली होती है । भूख नहीं हो तो बढ़िया भोजन भी अच्छा नहीं लगता, उसका रस भी नहीं बनता और वह बल भी नहीं देता । ऐसे ही कष्ट भोगनेपर पापोंका नाश होता है और परमात्माकी भूख लगती है । भूख लगनेपर पारमार्थिक बातें, सत्संगकी बातें बड़ी अच्छी लगती हैं और जीवनमें आती हैं ।
दुःखमें मनुष्यका विकास होता है । ऐसे बहुत कम शूरवीर आदमी मिलेंगे, जिन्होंने सुखमें विकास कर लिया । प्राय: दुःखमें विकास करनेवाले साधक ही मिलते हैं । कारण कि दुःखमें विकास होना सुगम है । सुखमें विकास नहीं होता,प्रत्युत विनाश होता है; क्योंकि इसमें पुराने पुण्य नष्ट होते हैं और सुखभोगमें उलझ जानेके कारण आगे उन्नति नहीं होती । जो प्रतिकूलता आनेपर भी साधन करता रहता है, वह अनुकूलतामें भी सुगमतापूर्वक साधन कर सकता है । परन्तु जो अनुकूलतामें ही साधन करता है, उसके सामने यदि प्रतिकूलता आ जाय तो वह साधन नहीं कर सकता । इसलिये गृहस्थका उद्धार जल्दी होता है, पर साधुका उद्धार जल्दी नहीं होता । कारण कि साधु तो थोड़ी भी प्रतिकूलता सह नहीं सकता और प्रतिकूलता आनेपर कमण्डलु उठाकर चल देता है, पर गृहस्थ प्रतिकूलता आनेपर कहाँ जाय ? वह माँ-बाप, स्त्री-पुत्रको कैसे छोड़े ? अत: वह वहीं बँधा रहता है और प्रतिकूलता सह लेता है । प्रतिकूलता सहनेसे उसकी सहनशक्ति बढ़ जाती है । जो थोड़ी भी प्रतिकूलता नहीं सह सकता, वह उन्नति कैसे करेगा ? वह तो कायर ही रहता है,शूरवीर नहीं हो सकता । भगवान्ने गीतामें कहा है‒
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥
(२ । १४)
‘हे कौन्तेय ! इन्द्रियोंके जो विषय ( जड़ पदार्थ) हैं, वे अनुकूलता और प्रतिकूलताके द्वारा सुख और दुःख देनेवाले हैं । वे आने-जानेवाले और अनित्य हैं । हे भारत ! उनको तुम सहन करो ।’
सहन करनेसे क्या होगा ? इसको बताते हैं ‒
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥
(गीता २ । १५)
‘हे पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन ! सुख-दुःखमें सम रहनेवाले जिस धीर मनुष्यको ये मात्रास्पर्श (पदार्थ) व्यथा नहीं पहुँचाते,वह अमर होनेमें समर्थ हो जाता है अर्थात् जन्म-मरणसे रहित हो जाता है ।’
सुखमें सुखी होना और दुःखमें दुःखी होना‒दोनों ही व्यथा है । अत: सुखमें सुखी नहीं होना और दुःखमें दुःखी नहीं होना अर्थात् सुख-दुःखमें सम रहना ही सुख-दुःखको सहना है । जो सुखी-दुःखी हो गया, उससे सुख भी नहीं सहा गया और दुःख भी नहीं सहा गया ।
सुख हरषहिं जड़दुख बिलखाहीं ।
दोउ सम धीर धरहि मन माहीं ॥
(मानस २ । १५० । ४)
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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