मनुष्यजन्मका उद्देश्य क्या है, हमारे जीवनका लक्ष्य क्या है‒इसको जानना बहुत आवश्यक है । जैसे, कोई आदमी अपने घरसे तो निकल जाय, पर कहाँ जाना है‒इसका पता ही न हो तो क्या दशा होती है ? वह किसीसे पूछे कि मुझे मार्ग बताओ । कहाँका बतायें ? कहींका बता दो ! तो फिर कहीं चले जाओ, बतानेकी जरूरत क्या है ? अगर यह उद्देश्य बन जाय कि हमें बद्रीनारायण जाना है तो फिर उसका मार्ग भी मिल जायगा, वहाँ जानेके साधन भी मिल जायेंगे और बतानेवाला भी मिल जायगा । कहाँसे जाना है, कैसे जाना है, पैदल जाना है कि मोटरसे, यह सब तो बादमें हो जायगा,पर ‘हमें बद्रीनारायण जाना है’‒यह विचार तो पहले ही खुदका होना चाहिये । ऐसे ही मनुष्यजन्मका मूल उद्देश्य भगवान्की प्राप्ति करना है । परन्तु मनुष्यजन्म पाकर भी इस उद्देश्यको न पहचाननेके कारण मनुष्य पतनके मार्गपर जा रहा है !
यह मनुष्यजन्म बहुत जन्मोंके अन्तमें मिलता है‒
लब्ध्वा सुदुर्लभमिदं बहुसम्भवान्ते
(श्रीमद्भा॰ ११ । ९ । २९)
बहूनां जन्मनामन्ते (गीता ७ । ११)
एक मार्मिक बात है कि यह मनुष्यजन्म सब जन्मोंका आदि जन्म भी है और अन्तिम जन्म भी है । जन्मोंका आरम्भ भी मनुष्यजन्मसे हुआ है और उनका अन्त भी मनुष्यजन्ममें ही होगा । जन्मोंका आरम्भ कब हुआ, कैसे हुआ, किसने किया आदि बातोंको जान भी नहीं सकते और जाननेकी जरूरत भी नहीं है । परन्तु जन्मोंका अन्त कर सकते हैं और अन्त करनेकी जरूरत भी है । गीतामें आया है‒
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥
(८ । ६)
‘हे कौन्तेय ! मनुष्य अन्तकालमें जिस-जिस भी भावका स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है, वह उस (अन्तकाल) के भावसे सदा भावित होता हुआ उस-उसको ही प्राप्त होता है अर्थात् उस-उस योनिमें ही चला जाता है ।’
‒इस बातसे यह सिद्ध हुआ कि मनुष्यजन्म मिलनेके बाद आगेका जन्म हम तैयार करते हैं‒‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥’ (गीता १३ । २१) । तात्पर्य है कि जन्म-मरणमें जानेके लिये अथवा उससे मुक्त होनेके लिये हम स्वतन्त्र हैं । अगर हमें सदाके लिये जन्म-मरणसे मुक्त होना है तो इसके लिये सबसे मुख्य बात यह है कि हमारा एकमात्र उद्देश्य परमात्माकी प्राप्ति हो । अपना कल्याण करना है, जीवन्तुक्त होना है, मुक्ति प्राप्त करनी है, विदेह कैवल्य प्राप्त करना है, सदाके लिये जन्म-मरणसे छूटना है,दुःखोंका अत्यन्त अभाव करना है, महान् आनन्दको प्राप्त करना है, परतन्त्रतासे छूटकर परम स्वतन्त्रताको प्राप्त करना है, भगवान्के दर्शन करना है, भगवत्प्रेम प्राप्त करना है‒ये अलग-अलग नाम साधनके अनुसार हैं, पर तत्त्वसे एक ही हैं । साधन अलग-अलग हैं, पर उद्देश्य सबका एक ही है । वह उद्देश्य जितना दृढ़ होगा, उतना ही मनुष्य स्वतः आगे बढ़ जायगा ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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