(गत ब्लॉगसे आगेका)
यहाँ भगवान्ने परमात्मप्राप्तिके सात अधिकारियोंके नाम लिये हैं‒दुराचारी, पापयोनि, स्त्रियाँ, वैश्य, शूद्र,ब्राह्मण और क्षत्रिय । इन सातोंसे बाहर कोई भी मनुष्य नहीं है । कैसा ही जन्म हो, कैसी ही जाति हो, कैसा ही आचरण हो और पूर्वजन्मके कितने ही पाप हों, पर भगवान्की प्राप्तिमें सब अधिकारी हैं । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र‒इन चारों वर्णोंका नाम आ गया । कोई चारों वर्णोंमें केवल पुरुष-ही-पुरुष न समझ ले, इसलिये स्त्रियोंका नाम अलगसे आया है । जो चारों वर्णोंसे नीचे हैं, वे यवन, हूण, खस् आदि सब पापयोनिमें आ गये* । मनुष्योंके सिवाय दूसरे जीव (पशु,पक्षी आदि) भी ‘पापयोनि’ में लिये जा सकते हैं; क्योंकि जीवमात्र भगवान्का ही अंश होनेसे भगवान्की तरफ चलनेमें (भगवान्की ओरसे) किसीके लिये भी मना नहीं है । जो वर्तमानमें पाप कर रहा है, वह ‘दुराचारी’ है और पूर्वजन्मके पापोंके कारण जिसका नीच योनिमें जन्म हुआ है,वह ‘पापयोनि’ है । तात्पर्य है कि दुराचारी-से-दुराचारी और नीच-से-नीच योनिवाला भी परमात्मप्राप्तिका अधिकारी है । जो पूर्वजन्मके पुण्यात्मा हैं, उनको पवित्र आचरणवाले ब्राह्मण कहा और जो इस जन्ममें पुण्यात्मा हैं, उनको ऋषिस्वरूप क्षत्रिय कहा, ऐसे ही जो पूर्वजन्मके पापी हैं,उनको पापयोनि कहा और जो इस जन्ममें पापी हैं, उनको सुदुराचारी कहा । ये सभी प्रकारके मनुष्य परमात्माको प्राप्त कर सकते हैं । इसलिये अनित्य और सुखरहित इस शरीरको पाकर अर्थात् हम जीते रहें और सुख भोगते रहें‒ऐसी कामनाको छोड़कर भगवान्का भजन करना चाहिये । यह मनुष्य-शरीर भजन करनेके लिये है सुख-भोगके लिये नहीं‒‘एहि तन कर कल बिषय न भाई’ (मानस ७ । ४४ । १) । भजन करनेके लिये ही सबसे पहला काम है‒अपने उद्देश्यको पहचानना । उद्देश्यकी दृढ़ता होनेपर उसकी पूर्तिकी सामग्री अपने-आप मिलेगी ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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[*] किरातहूणान्ध्रपुलिन्दपुल्कसा आभीरकङ्का यवना: खसादय: ।
येऽन्ये च पापा यदुपाश्रयाश्रया: शुध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नम: ॥
(श्रीमद्धा॰ २ । ४ । १८)
‘जिनके आश्रित भक्तोंका आश्रय लेकर किरात, हूण, आन्ध्र,पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, कंक, यवन, खस आदि अधम जातिके लोग और इनके सिवाय अन्य पापीलोग भी शुद्ध हो जाते हैं, उन जगत्प्रभु भगवान् विष्णुको नमस्कार है ।’
जैसे भगवान्ने पापी-से-पापी व्यक्तिको भी भक्तिका अधिकारी बताया है, ऐसे ही उसको ज्ञानका अधिकारी भी बताया है; जैसे‒
अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्यः पापकृत्तम: ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिन सन्तरिष्यसि ॥
( गीता ४ । ३६)
‘अगर तू सब पापियोंसे भी अधिक पापी है, तो भी तू ज्ञानरूपी नौकाके द्वारा निःसन्देह सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे अच्छी तरह तर जायगा ।’
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