(गत ब्लॉगसे आगेका)
परोक्षरूपसे सबका हित करनेवाले भगवान् हैं और प्रत्यक्ष तथा परोक्ष-दोनों रूपसे सबका हित करनेवाले सन्त-महात्मा हैं । भगवान्में एक विलक्षणता और भी है कि वे सब कुछ देकर भी लेनेवालेको उसका पता नहीं लगने देते । इस ढंगसे देते हैं कि लेनेवाला उन वस्तुओंको अपनी ही समझने लगता है । यह विलक्षणता एक नम्बरमें भगवान्में है और दो नम्बरमें सन्तोंमें । भगवान् और सन्त बिना हेतु सबका उपकार करते हैं, किसी हेतुको लेकर नहीं । वे किसी देश,वेश, व्यक्ति, वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिका पक्षपात न करके स्थावर-जंगमरूप मात्र जगत्का उपकार करते हैं । ऐसे परम उपकारी भगवान्ने कृपा करके मानव-जीवनका समय दिया है, सामग्री दी है, समझ दी है और सामर्थ्य दी है । ये चारों चीजें भगवान्ने केवल जीवमात्रके उद्धारके लिये दी हैं ।
समय, सामग्री, समझ और सामर्थ्य‒ये चारों सबके पास बराबर नहीं हैं; किसीके पास कम हैं, किसीके पास ज्यादा । परन्तु एक मार्मिक बात है कि हमारे पास जितना समय है, जितनी सामग्री है, जितनी समझ है और जितनी सामर्थ्य है, उतनी भगवान्में लगा दें तो पूर्णता प्राप्त हो जायगी, भगवान्की प्राप्ति हो जायगी । साधकसे गलती यह होती है कि वह प्राप्त सामग्री आदिका सदुपयोग न करके और अधिक (नयी-नयी) सामग्री आदिकी इच्छा करता है उसको और अधिक बढ़ाना चाहता है । वह सामग्री आदिको जितना महत्त्व देता है, उतना भगवान्को महत्त्व नहीं देता । सामग्री आदिको महत्त्व देना भगवत्प्राप्तिमें बाधक होता है । अतः हमें जो समय, सामग्री आदि मिली है, उसीसे भगवान्की प्राप्ति हो सकती है । अगर कोई कमी रह जायगी तो उसकी पूर्ति भगवान् कर देंगे । भगवान्का दरबार सबके लिये सब समय खुला है‒‘यहि दरबार दीन को आदर रीति सदा चलि आई ॥’(विनय॰ १६५ । ५) । हमारेमें जिस चीजकी कमी होगी,आवश्यकता पडनेपर उसकी पूर्ति भी हो जायगी । जैसे,चलते-चलते थक जाते हैं तो बिना कुछ उद्योग किये,चुपचाप पड़े-पड़े पुनः चलनेकी शक्ति प्राप्त हो जाती है‒यह सबका प्रत्यक्ष अनुभव है । सदुपयोगसे शक्ति बढ़ती है और दुरुपयोगसे नष्ट होती है ।
एक शंका होती है कि भगवान्ने हमें समय, समझ,सामग्री आदि सब कुछ तो दे दिया, पर स्वतन्त्रता क्यों दी ?इस स्वतन्त्रताका हम सदुपयोग भी कर सकते हैं और दुरुपयोग भी कर सकते हैं; पाप भी कर सकते हैं और पुण्य भी कर सकते हैं; बन्धनमें भी जा सकते हैं और मुक्तिमें भी जा सकते हैं, सब कुछ कर सकते हैं । अतः जिससे हम अपना पतन कर लें, ऐसी स्वतन्त्रता भगवान्ने क्यों दी ? इसका समाधान यह है कि अगर भगवान् मनुष्यको परतन्त्र बना देते तो मनुष्य-शरीरका कुछ महत्त्व ही नहीं रहता । उत्तम-से-उत्तम शरीर गायका है, जिसका गोबर और गोमूत्र भी शुद्ध होता है; परन्तु वह भगवान्का भजन-स्मरण नहीं कर सकती; क्योंकि वह केवल भोगयोनि है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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