।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
माघ कृष्ण द्वितीया, वि.सं.–२०७०, शनिवार
उद्देश्यकी दृढ़तासे लाभ


(गत ब्लॉगसे आगेका)
अगर भगवान् मनुष्यको स्वतन्त्रता नहीं देते तो वह भी सदाके लिये भोगयोनि बन जाताकर्मयोनि (साधनयोनि) नहीं बनता । भगवान्‌ने स्वतन्त्रता दी है अपना कल्याण करनेके लिये । परन्तु हम अपना कल्याण न करके उस स्वतन्त्रताको दूसरे कामोंमें लगा देते हैं । इस प्रकार भगवान्‌से मिली हुई स्वतन्त्रताका दुरुपयोग तो हम करते हैं और उलाहना भगवान्‌को देते हैं कि उन्होंने हमें स्वतन्त्रता क्यों दी ! अगर भगवान् स्वतन्त्रता न देते तो हम पुण्य भी नहीं कर सकते । अशुभ काम नहीं कर सकते तो शुभ काम भी नहीं कर सकते । स्वतन्त्रता मुक्तिके लिये मिली हैबन्धनके लिये नहीं । शिवलिंग पूजा करनेके लिये होता हैपर उससे कोई अपना सिर फोड़ ले तो भगवान् शंकर क्या करें ? इसलिये भगवान्‌ने कृपा करके हमें जोस्वतन्त्रता दी हैउसका सदुपयोग करना हमारा कर्तव्य है ।

कोई कैसा ही प्राणी क्यों न होउसको भगवान्‌ने मुक्तिका पूरा अवसर दिया है । मनुष्यको भगवान्‌ने दो चीजें दी हैं‒भोगके लिये कर्म-सामग्री और मोक्षके लिये विवेक । कर्म-सामग्रीके साथ विवेक इसलिये दिया है कि मनुष्यको यह जानकारी रहे कि इन कर्मोंसे वह चौरासी लाख योनियोंमें तथा नरकोंमें जायगाइन कर्मोंसे वह स्वर्गमें जायगाइन कर्मोंसे वह पुनः मनुष्यजन्ममें आयेगा और इन कर्मोंसे (कर्मोंसे सम्बन्धविच्छेद होनेपर) वह सदाके लिये जन्म-मरणसे छूट जायगा । अब इस विवेकका वह सदुपयोग करे या दुरुपयोग करेइसमें वह स्वतन्त्र है । भगवान्‌ने मनुष्यको कितनी स्वतन्त्रता दी है कि वह जिस-जिस भावका स्मरण करता हुआ शरीर छोड़े उस-उसको ही प्राप्त हो जाता है । यह भगवान्‌की कितनी उदारता है !
जो दयालु होता हैवह न्यायकारी नहीं हो सकता और जो न्यायकारी होता हैवह दयालु नहीं हो सकता । न्याय करनेवालेको तो ठीक मर्यादामें चलना पड़ेगा । अगर वह दया करेगा तो ठीक मर्यादामें नहीं चल सकेगा । परन्तु यह अड़चन तभी आती हैजब कानून बनानेवाला निर्दयी हो । भगवान् तो अनन्त दयालु हैंअतः उनके बनाये हुए कानूनमें न्याय भी है और दया भी ! उनकी न्यायकारितामें दयालुता परिपूर्ण है और दयालुतामें न्यायकारिता परिपूर्ण है । जैसे,अन्तकालमें मनुष्य भगवान्‌का स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है तो वह भगवान्‌को प्राप्त हो जाता है और कुत्तेका स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है तो कुत्तेकी योनिको प्राप्त हो जाता है । तात्पर्य है कि जितने मूल्यमें कुत्तेकी योनि मिलती हैउतने ही मूल्यमें भगवान्‌की प्राप्ति हो जाती है‒यह भगवान्‌के न्यायमें भी महान् दया भरी हुई है । जिस स्वतन्त्रतासे नीच योनि मिल जायउसी स्वतन्त्रतासे देवादि ऊँची योनि प्राप्त हो जायकल्याण हो जायमुक्ति हो जाय‒यह भगवान्‌ने कितनी विलक्षण स्वतन्त्रता दी है । जो अन्तकालमें किसीका स्मरण नहीं करताप्रत्युत केवल ममता और अहंकारका त्याग कर देता हैवह भी निर्वाण ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है[*] 

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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[*] विहाय कामान्य      सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
      निर्ममो निरहंकारः     स   शान्तिमधिगच्छति 
     एषा ब्राह्मी स्थिति पार्थ  नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
      स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि   ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति 
                             (गीता २ । ७१-७२)

            ‘जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग करके निर्मम निरहंकार और नि:स्पृह होकर विचरता है, वह शान्तिको प्राप्त होता है । हे पृथानन्दन ! यह ब्राह्मी स्थिति है । इसको प्राप्त होकर कभी कोई मोहित नहीं होता । इस स्थितिमें यदि अन्तकालमें भी स्थित हो जाय तो निर्वाण (शान्त) ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है ।’