।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
पौष शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
परमात्मा सगुण हैं या निर्गुण ?


(शेष आगेके ब्लॉगमें)
साधकको अपने मतसम्प्रदाय आदिका आग्रह नहीं रखना चाहियेप्रत्युत उसका अनुसरण करना चाहिये ।अपने मतका आग्रह रखनेसे उसका दूसरे मतसे द्वेष हो जायगाजिससे वह दूसरे मतकी बातोंको निष्पक्ष होकर नहीं सुन सकेगा । सभी मतसम्प्रदाय आदिमें अच्छे-अच्छे सन्त-महापुरुष हुए हैं । अपने मतका आग्रह रहनेसे साधक उन सन्त-महापुरुषोंकी अच्छी-अच्छी बातोंसे वंचित रह जायगा । अत: साधकको चाहिये कि वह प्रत्येक मतसम्प्रदाय आदिकी बातोंको निष्पक्ष होकर सुनेउनपर गहराईसे विचार करे और जो बातें उपयोगी लगेंउनको ग्रहण करे ।साधकको सारग्राही बनना चाहिये । अगर उसको अपने या दूसरेके मतमें कोई शंका पैदा हो जाय तो जिनपर उसकी श्रद्धा होउनसे पूछकर समाधान कर लेना चाहिये । न समझनेके कारण अपने मतमें कोई कमी या बाधा दीखे तो उसका त्याग कर देना चाहिये । उपनिषद्‌में आचार्य अपने शिष्योंको उपदेश देते हैं‒
‘यान्यनवद्यानि कर्माणि । तानि सेवितव्यानि । नो इतराणि । यान्यस्माकं सुचरितानि । तानि त्वयोपास्यानि । नो इतराणि ।’ (तैत्तिरीय १ । ११)

‘जो-जो निर्दोष कर्म हैंउनका ही तुम्हें सेवन करना चाहियेदूसरे (दोषयुक्त) कर्मोंका कभी आचरण नहीं करना चाहिये । हमारे आचरणोमेसे भी जो-जो अच्छे आचरण दीखेंउनका ही तुम्हें सेवन करना चाहियेदूसरोंका कभी नहीं ।’

इसका अर्थ यह नहीं है कि उन आचार्योंमें कोई कमी या दोष है । कमी हमारी समझमें है उनमें नहीं । अत: उनकी कोई क्रिया हमारी समझमें न आयेउसमें हमारी दोषदृष्टि हो जाय तो उसका अनुसरण नहीं करना चाहिये ।
साधकका वास्तविक गुरु उसका ‘विवेक’ ही है । अत: अपने विवेकका आदर करनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है ।जितना जानते हैंउसको मान लें‒यह विवेकका आदर है ।यह नाशवान् है‒ऐसा जानते हुए भी उसमें प्रियता करना अपने विवेकका अनादर है । जिसकी नाशवान्‌में प्रियता है,वह अविनाशी तत्त्वको कैसे समझेगा अगर वह असत्‌में ही उलझा रहेगा तो सत्-तत्त्वकी प्राप्ति कैसे होगी ? जिसकी भोग और संग्रहमें प्रियता हैवह परमात्मतत्वकी प्राप्ति तो दूर रहीउसकी प्राप्तिका निश्चय भी नहीं कर सकता‒
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां         तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धि: समाधौ न विधीयते ॥
                                                     (गीता २ । ४४)
‘उस पुष्पित (भोगोंका वर्णन करनेवाली) वाणीसे जिनका अन्तःकरण हर लिया गया है अर्थात् भोगोंकी तरफ खिंच गया है और जो भोग तथा ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं,उन मनुष्योंकी परमात्मामें निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती ।’

साधकके लिये केवल इतना ही मान लेना आवश्यक है कि ‘परमात्मतत्त्व है’ अथवा ‘संसार नहीं है’ । परमात्मतत्त्व कैसा है‒यह जाननेकी जरूरत नहीं है ।  कारण कि परमात्मतत्त्व विचारका विषय नहीं हैप्रत्युत श्रद्धा-विश्वासकामान्यताका विषय है* परन्तु ‘परमात्मा है’इसकी दृढ़ताके लिये ‘संसार नहीं है’यह विचार करनेकी आवश्यकता है । जैसेशरीर प्रतिक्षण बदल रहा हैअभावमें जा रहा है‒यह प्रत्यक्ष अनुभवकी बात है । बचपनमें जैसा शरीर थावैसा अब नहीं रहासर्वथा बदल गयापर मैं (स्वयं) वही हूँ‒इस प्रकार शरीरके बदलनेका ज्ञान सबको है,पर अपने बदलनेका ज्ञान किसीको भी नहीं हैक्योंकि अपना स्वरूप कभी बदलता ही नहीं । ऐसा विचार करके साधक बदलनेवाले (संसार) से विमुख हो जाय तो उसको न बदलनेवाले (परमात्मतत्त्व) का अनुभव हो जायगा ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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     *इस विषयको अच्छी तरह समझनेके लिये ‘सहज साधना’ पुस्तकमें ‘जिज्ञासा और बोध’ शीर्षक लेख पढ़ना चाहिये ।