मुक्ति अथवा तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिमें खास बाधक है‒अहंकार । जड़ प्रकृतिके कार्य शरीरको अपना स्वरूप मान लेनेसे अहंकार अर्थात् देहाभिमान उत्पन्न होता है, अहंकारसे एकदेशीयता उत्पन्न होती है तथा एकदेशीयतासे फिर वर्ण,आश्रम, सम्प्रदाय आदिको लेकर सैकड़ों-हजारों भेद उत्पन्न होते हैं; जैसे‒मैं ब्राह्मण हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, मैं वैश्य हूँ, मैं शूद्र हूँ, मैं ब्रह्मचारी हूँ, मैं गृहस्थ हूँ, मैं वानप्रस्थ हूँ, मैं संन्यासी हूँ, आदि-आदि । तात्पर्य है कि सब भेद अहंकारसे ही पैदा होते हैं । जबतक अहंकार रहता है, तबतक भेदका नाश नहीं होता । जहाँ भेद है, वहाँ ज्ञान नहीं है और जहाँ ज्ञान है, वहाँ भेद नहीं है । अतः मुक्ति अथवा तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति अहंकार मिटनेसे ही होती है । इसलिये गीतामें जहाँ ज्ञानप्राप्तिके साधनोंका वर्णन आया है, वहाँ (साधनमें भी) अहंकारसे रहित होनेकी बात कही गयी है‒‘अनहङ्कार एव च’ (१३ । ८) । कारण कि ज्ञानप्राप्तिमें देहाभिमान मुख्य बाधा है‒
अव्यक्ता हि गतिर्दुखं देहवद्धिरवाप्यते ॥ (गीता १२ । ५)
‘देहाभिमानियोके द्वारा अव्यक्तविषयक गति कठिनतासे प्राप्त की जाती है ।’
संसृत मूल सूलप्रद नाना । सकल सोक दायक अभिमाना ॥
(मानस ७ । ७४ । ३)
अतः जो कहता है कि ‘मैं ब्राह्मण हूँ’, ‘मैं संन्यासी हूँ’और जो कहता है कि ‘मैं अन्त्यज हूँ’, ‘मैं गृहस्थ हूँ’, उन दोनोंके देहाभिमानमें क्या फर्क हुआ ? देहाभिमानकी दृष्टिसे दोनों ही समान हैं । देहका अध्यास ही ब्राह्मण, संन्यासी आदि है और देहका अध्यास ही अन्त्यज, गृहस्थ आदि है । वास्तवमें तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति न ब्राह्मणको होती है, न क्षत्रियको होती है, न वैश्यको होती है, न शूद्रको होती है, न ब्रह्मचारीको होती है, न गृहस्थको होती है, न वानप्रस्थको होती है, न संन्यासीको होती है, प्रत्युत जिज्ञासुको होती है । तात्पर्य है कि जो तीव्र जिज्ञासु होता है, वह ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि नहीं होता‒
नाहं मनुष्यो न च देवयक्षौ न ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रः ।
न ब्रह्मचारी न गृही वनस्थो भिक्षर्न चाहं निजबोधरूपः ॥
(हस्तामलकस्तोत्र)
संतो, अब हम आपा चीन्हा ।
निज स्वरूप प्राप्त है नित ही, अचरज सहित स कीन्हा ॥
ना हम मानुष देवता नाहीं, ना गिरही वनखण्डी ।
ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्यहु नाहीं, ना हम शूद्र न दण्डी ॥
ना हम ज्ञानी चतुर न मूरख, ना हम पण्डित पोथी ।
ना हम सागर न मरजीवा, ना हम सीप न मोती ॥
ना हम स्वर्गलोक को जाते, ना हम नरक सिधारे ।
हम सब रूप सबन ते न्यारा, ना जीता ना हारे ॥
ना हम अमर मरे ना कबहूँ, कबीर ज्यों-का-त्यों ही ।
व्यास कपिल मुनि वामदेव ऋषि, सबका अनुभव यों ही ॥
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘तत्त्वज्ञान कैसे हो ?’ पुस्तकसे
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