।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
माघ कृष्ण षष्ठी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
मुक्तिमें सबका समान अधिकार


मुक्ति अथवा तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिमें खास बाधक है‒अहंकार । जड़ प्रकृतिके कार्य शरीरको अपना स्वरूप मान लेनेसे अहंकार अर्थात् देहाभिमान उत्पन्न होता है, अहंकारसे एकदेशीयता उत्पन्न होती है तथा एकदेशीयतासे फिर वर्ण,आश्रमसम्प्रदाय आदिको लेकर सैकड़ों-हजारों भेद उत्पन्न होते हैंजैसे‒मैं ब्राह्मण हूँमैं क्षत्रिय हूँमैं वैश्य हूँमैं शूद्र हूँमैं ब्रह्मचारी हूँमैं गृहस्थ हूँमैं वानप्रस्थ हूँमैं संन्यासी हूँआदि-आदि । तात्पर्य है कि सब भेद अहंकारसे ही पैदा होते हैं । जबतक अहंकार रहता हैतबतक भेदका नाश नहीं होता । जहाँ भेद हैवहाँ ज्ञान नहीं है और जहाँ ज्ञान हैवहाँ भेद नहीं है । अतः मुक्ति अथवा तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति अहंकार मिटनेसे ही होती है । इसलिये गीतामें जहाँ ज्ञानप्राप्तिके साधनोंका वर्णन आया हैवहाँ (साधनमें भी) अहंकारसे रहित होनेकी बात कही गयी है‒‘अनहङ्कार एव च’ (१३ । ८) । कारण कि ज्ञानप्राप्तिमें देहाभिमान मुख्य बाधा है‒
अव्यक्ता हि गतिर्दुखं देहवद्धिरवाप्यते ॥ (गीता १२ । ५)

‘देहाभिमानियोके द्वारा अव्यक्तविषयक गति कठिनतासे प्राप्त की जाती है ।’

                       संसृत मूल सूलप्रद नाना । सकल सोक दायक अभिमाना ॥
                                                                           (मानस ७ । ७४ । ३)

अतः जो कहता है कि ‘मैं ब्राह्मण हूँ’‘मैं संन्यासी हूँ’और जो कहता है कि ‘मैं अन्त्यज हूँ’‘मैं गृहस्थ हूँ’उन दोनोंके देहाभिमानमें क्या फर्क हुआ देहाभिमानकी दृष्टिसे दोनों ही समान हैं । देहका अध्यास ही ब्राह्मणसंन्यासी आदि है और देहका अध्यास ही अन्त्यजगृहस्थ आदि है । वास्तवमें तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति न ब्राह्मणको होती हैन क्षत्रियको होती हैन वैश्यको होती हैन शूद्रको होती हैन ब्रह्मचारीको होती हैन गृहस्थको होती हैन वानप्रस्थको होती हैन संन्यासीको होती हैप्रत्युत जिज्ञासुको होती है । तात्पर्य है कि जो तीव्र जिज्ञासु होता हैवह ब्राह्मणक्षत्रिय आदि नहीं होता‒
नाहं मनुष्यो न च देवयक्षौ    न ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रः ।
न ब्रह्मचारी न गृही वनस्थो भिक्षर्न चाहं निजबोधरूपः ॥
                                                                            (हस्तामलकस्तोत्र)

                      संतोअब हम आपा चीन्हा ।
निज स्वरूप प्राप्त है नित ही   अचरज सहित स कीन्हा ॥ 
ना हम मानुष देवता नाहीं          ना गिरही वनखण्डी ।
ब्राह्मणक्षत्रिय वैश्यहु नाहीं        ना हम शूद्र न दण्डी ॥
ना हम ज्ञानी चतुर न मूरख,         ना हम पण्डित पोथी ।
ना हम सागर न मरजीवा,           ना हम सीप न मोती ॥
ना हम स्वर्गलोक को जाते,          ना हम नरक सिधारे ।
हम सब रूप सबन ते न्यारा,            ना जीता ना हारे ॥
ना हम अमर मरे ना कबहूँ      कबीर ज्यों-का-त्यों ही ।
व्यास कपिल मुनि वामदेव ऋषिसबका अनुभव यों ही ॥

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)      
‒‘तत्त्वज्ञान कैसे हो ?’ पुस्तकसे